Thursday, September 30, 2010

हाईकोर्ट का फैसला शान्ति व सौहार्द्र का प्रतीक !


अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद अर्थात भू-स्वामित्व को लेकर पिछले ६० वर्षों से इलाहावाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में चल रहे मुकदमे के फैसले के दिन-३० सितंबर,२०१० को संपूर्ण भारत देश में फैसले को लेकर सन्नाटा उत्सुकता का माहौल कायम रहा, चारों ओर शान्ति सौहार्द्र की अपील जारी होते रहीं, फैसले को लेकर उत्सुकता यह थी कि क्या फैसला होगा ! किसके पक्ष में फैसला होगा ! और सन्नाटा यह था कि कहीं फैसले को लेकर किसी पक्ष विशेष द्वारा तीखी उग्र प्रतिक्रया जाहिर हो जाए जिससे देश में कायम अमन-चैन, शान्ति सौहार्द्र पर विपरीत प्रभाव पड़े

इलाहावाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपरान्ह जो फैसला सुनाया वह निश्चिततौर पर देश में अमन चैन के लिए मिशाल बना, ये बात और है की फैसले से किसी किसी पक्ष को संतोष असंतोष का सामना करना पड़ता है हुआ भी यही कि संतोष असंतोष की मिली-जुली प्रतिक्रया जाहिर हुईसभी पक्षकारों ने न्यायालय के फैसले को स्वीकार करने का आश्वासन पूर्व से ही जाहिर किया हुआ था जो फैसले के बाद भी दिखाई दिया, तीनों पक्षकार - सुन्नी बक्फ बोर्ड, राम जन्मभूमि न्यास तथा निर्मोही अखाड़ा ने मिली-जुली प्रतिक्रया जाहिर करते हुए असंतोष जाहिर किया तथा अपने अपने असंतोष को लेकर सुप्रीमकोर्ट जाने के पक्ष में दिखाई दिए

संतोष - असंतोष अपनी अपनी जगह पर है जिसके समाधान के लिए सुप्रीमकोर्ट का मार्ग खुला हुआ है, यह फैसला जितना पक्षकारों के लिए महत्वपूर्ण था उससे कहीं ज्यादा देश वासियों के लिए महत्वपूर्ण था वो इसलिए कि यह फैसला देश में अमन-चैन, शान्ति सौहार्द्र का प्रतीक थाइस विवादास्पद मुद्दे पर फैसले को लेकर जो उथल-पुथल पक्षकारों देश वासियों के जहन में रही होगी, मेरा मानना है कि उससे कई गुना ज्यादा उथल-पुथल जस्टिस साहबान ने महसूस की होगीलखनऊ हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल, एस.यू.खान, धर्मवीर शर्मा के द्वारा सुनाया गया फैसला निसंदेह शान्ति सौहार्द्र का प्रतीक है जो स्वागत योग्य है !

Wednesday, September 29, 2010

अयोध्या विवाद ... यह अपील नहीं वरन मीडिया से एक उम्मीद है !!!


अयोध्या विवाद ... राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवादास्पद स्थल के स्वामित्व विवाद पर आज हाईकोर्ट लखनऊ द्वारा अपना फैसला सुनाया जाना है ... दोनों पक्ष अदालत के फैसले को सर-आँखों पर लेंगे ऐसा सुन रहे हैं यदि कोई पक्ष फैसले से असंतुष्ट रहता है तो उसके पास अपील करने का रास्ता खुला हुआ है, साथ ही साथ अदालती फैसले के वाद भी यदि दोनों पक्ष चाहें तो बैठकर आपस में सलाह-मशविरा कर भी किसी नतीजे पर आम सहमत हो सकते हैं।

यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक आस्थाओं से जुडा हुआ है अदालती फैसले से दोनों पक्षों के संतुष्ट होने के पश्चात भी यह मसला बेहद संवेदनशील रहेगा क्योंकि देश के किसी भी कोने से छोटी-मोटी नकारात्मक प्रतिक्रया भी देश में शान्ति व सौहार्द्र को प्रभावित कर सकती है इन संवेदनशील हालात को देखते हुए ... देश के सभी उच्च पदस्थ व्यक्तित्व ने तथा भारतीय मीडिया ने देश की जनता से शान्ति व सौहार्द्र बनाए रखने के लिए अपील की है ... किन्तु भारतीय मीडिया खासतौर पर न्यूज चैनल्स से मेरी व्यक्तिगत तौर पर एक उम्मीद / आशा है कि : -
  • वे देश के किसी भी कोने से ऐसी खबर को "ब्रेकिंग न्यूज" न बनाएं जो हिन्दू-मुस्लिम की धार्मिक संवेदनाओं को उद्देलित करे।
  • किसी भी पक्ष के ऐसे प्रतिनिधियों की बाईट / स्टेटमेंट लेने से दूर रहें जो अक्सर ही तीखे विचार व्यक्त करते हैं।
  • अनावश्यक रूप से किसी की भी स्टेटमेंट लेने को तबज्जो न दें ताकि वे लोग बे-वजह ही हीरो बनने के लिए तीखे विचार व्यक्त करें अथवा पक्ष विशेष के हिमायती बनने की कोशिश करें ।
  • अदालती फैसले से उपजे व हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक भावनाओं से जुड़े किसी भी प्रकार के नकारात्मक पहलुओं को हाईलाईट न करें।

Tuesday, September 28, 2010

गरीबी ...

आज गरीबी को
दाने दाने के लिए, भटकते देखा है !

धूप रही, बरसात रही
पर गरीब को
पीठ पे बोझा, ढोते देखा है !

आज गरीबी को, खुद की हालत पे
गुमसुम गुमसुम, रोते देखा है !

दो रोटी के
चार टुकडे कर
बच्चों को, पेट भरते देखा है !

कहाँ दवा
दुआओं पर ही, बच्चों का बुखार
ठीक होते देखा है !

घाव नहीं, पर भूख से
बच्चों को
बिलखते देखा है !

बारिस से, भीग गया कमरा
दीवालों से सटकर
गरीबी को, झपकियाँ लेते देखा है !

भूख बला थी, लोगों को
जीते जी
भूख से मरते देखा है !

और बचा था, कुछ देखन को
तो जिन्दों को
मुर्दों-सा, जीवन जीते देखा है !

आज गरीबी को
सड़क पर, दम तोड़ते देखा है !!

Monday, September 27, 2010

खोटा सिक्का

सिक्का खोटा है
तो क्या हुआ
फेंक दोगे
तो क्या होगा
शायद कुछ नहीं !

पडा रहने दो जेब में
क्या फर्क पड़ता है
संभव है किसी दिन
काम जाए
क्या काम आयेगा !!
शायद कुछ नहीं !

पर, संभव है
किसी दिन
किसी दोराहे पर
वही खोटा सिक्का
हेड-टेल के
काम जाए

जीत कर
एक बाजी
नई मंजिल
नई दुनिया
का बादशाह
बना जाए

खोटा है
तो रहने दो
पर जेब में
पडा रहने दो
संभव है
किसी दिन
काम जाए !!!

Friday, September 24, 2010

क्या भारतीय मीडिया देश को शर्मसार करने में मस्त है ???

कामनवेल्थ गेम्स का आयोजन ... आयोजन हुआ मीडिया के लिए मनोरंजन का साधन बन गया है ... अब इसे मनोरंजन इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आजकल देश के सभी न्यूज चैनल्स "आयोजन " के नकारात्मक पहलू पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर देश को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर शर्मसार करने में मस्त है ... क्या उन्हें आयोजन के सकारात्मक पहलू नजर नहीं रहे या फिर वो देखना ही नहीं चाहते ... अरे भाई क्यों देखें !!! जब भरपूर मनोरंजन जो हो रहा है ... मेरा मानना तो यह है कि आयोजन समीति की तुलना में भारतीय मीडिया नकारात्मक पहलू दिखा - दिखा कर देश को शर्मसार करने में ज्यादा मस्त नजर रहा है !!... अब इसे मस्त या मनोरंजन की संज्ञा इसलिए देना लाजिमी है कि क्या पहले आयोजन समीति की भांति ही मीडिया भी सो रहा था जो अचानक नींद से जाग कर राग अलापने में जुट गया है !!!

मैं यह नहीं कहता कि आयोजन समीति ने जो लापरवाही अनियमितताएं बरती हैं उसके लिए उसे दण्डित किया जाए, संभव है भ्रष्टाचार का जो हल्ला हो रहा है उस क्षेत्र में भी सीमाएं पार की गई होंगी ... पर अब, आज वो समय नहीं है कि इन शर्मसार करने वाले मुद्दों को उछाला जाए, अब समय है आयोजन के सकारात्मक पहलू को दुनिया के सामने रखा जाए तथा नकारात्मक पहलू से आयोजन समीति व् सरकार को अप्रत्यक्ष रूप से अवगत कराया जाए, कि चिल्ला-चिल्ला कर दुनिया के सामने देश को शर्मसार किया जाए ... भारतीय मीडिया के इस नकारात्मक रबैय्ये को देख कर मुझे अजीब सा महसूस हो रहा है तो स्वाभाविक है कि दूसरे देश के लोग जाने क्या-से-क्या अंदाजा लगा रहे होंगे !!!

यहाँ एक और पहलू पर चर्चा आवश्यक महसूस कर रहा हूँ वो है कोई भी देश या खिलाड़ी खेल से बढ़कर नहीं हैं ... जिस खिलाड़ी को आना है आये जिसे आना है मत आये, जिस देश को खेलना है तो आकर खेले जिसे नहीं खेलना खेले ... किसी नामचीन खिलाड़ी या देश की टीम खेल खेल भावना से बढ़कर नहीं हो सकती ... अक्सर देखा गया है कि नए खिलाड़ी नई टीम भी धुरंधरों को पटकनी दे देती है ... इस विषय को उठाना भी जरुरी हो गया था क्योंकि इस मुद्दे को भी मीडिया वाले बेहद गंदे तरीके से उछाल रहे हैं ... मैं चंद प्रश्न आपके समक्ष रख रहा हूँ ... क्या बाथरूम के धूलयुक्त फोटोग्राफ्स, व्यवस्थाओं में अनियमितता, ओवरब्रिज का गिर जाना, छत की टाइल्स का गिर जाना या फिर इन्गलेंड की टीम का होटल में ठहर जाना, देश को शर्मसार कर रहे हैं या फिर भारतीय मीडिया इन मुद्दों को उछाल-उछाल कर शर्मसार करने में मस्त है ???

शेर : साथ, पैक-पे-पैक, पत्थर

तेरे आने पर खुशी थी, जाने पर गम होगा
होगा जरुर कुछ, जब तक तेरा-मेरा साथ होगा

.........................................

बेटा सामने कमरे में बैठ, दोस्तों संग पैक-पे-पैक लड़ा रहा है
अन्दर कमरे में बाप, खाट पे पडा दबा के लिए तड़फडा रहा है

.........................................

वह रकीब बन, पत्थर हाथ में लेके मुझे ढूँढता रहा
सामने जब आया तो, पत्थर को घंटों चूमता रहा

Thursday, September 23, 2010

मैं,मेरी श्रीमतीजी और............. भाग-4 (व्यंग्य)

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-4 (व्यंग्य)

मैं चुपके से सुन रहा था. उनके रेखा गणित में गणित कहीं नहीं था सिर्फ़ रेखा ही रेखा दिख रही थी. ससुरजी को कैसे समझाया जाये गणित में भी बहकी बातें ही पढाते हैं. वह कभी भी गलत नहीं बोलते लेकिन बच्चों पर तो इसका दुष्प्रभाव ही पङेगा न ?. मैंने सोचा देव-भाषा संस्कृत के साथ छेङखानी नहीं करेंगे.इसलिये मैंने उन्हें टिंकू को संस्कृत पढाने का आग्रह किया.अगले दिन आकर दरबाजे पर ठहर गया. ससुरालवालों ने सुनने की क्षमता तो बढा ही दिया है.सुनने लगा------

"विद्या ददाति लोभम , लोभम ददाति धूर्तताम

धूर्तत्वा धनमाप्नोति,धनात पाप: तत: दुखम.

अर्थ बाद मे बताउंगा पहले श्लोक लिखो.

"उत्तमा कारं ईच्छन्ति , मोटर सायकिलं मध्यमा

अधमा सायकिलं ईच्छान्ति सायकिलं महती धनं.

"असत्यं वद प्रियं वद न वद असत्यं अप्रियं

विना विलम्बे सत्यम प्रियम वद अवश्यम.

अगला श्लोक: नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र नेता ".

तभी मेरे मुंह से निकल गया---"नेता नहीं देवता.". ससुरजी बोलने लगे---" दामादजी मैंने जान-बूझकर मोडिफ़ाइ करके बताया है.आज के बच्चे देवी-देवता के बारे में नहीं जानते और देवता और नेता में अब फ़र्क ही कहां है. अब तो सुर-असुर साथ-साथ बैठकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निबाहते हैं. दोनो मिलकर सत्ता का अमृत पीते हैं. उपर से संसार का विष इतना विषैला हो चुका है कि आज के महादेव विष पीकर कोमा में जा चुके हैं....देखियेगा जल्दी ही कोमा से फ़ुल-स्टोप लग जायेगा ".

ओह कोमा में तो मेरी जिंदगी चली गयी थी. ससुरजी के रहते टिंकू का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था. अंधकार में तो रोशनी डाला जा सकता है लेकिन इसी तरह वह पढाते रहे तो उसका भविष्य गर्त में चला जायेगा.मैंने फ़िर से उस ब्लोगर मित्र से सलाह लिया तो उसने कहा कि उनसे शोपिन्ग-वोपिंग करवाओ.मेरी बात को मानते हुए ससुरजी सायंकाल टिंकू के साथ शोपिंग के लिये चले गये.

अब घर में मैं और श्रीमतीजी ही बच गये थे.कुछ ही देर में मौका देखकर अपने पिता के सेवा और सत्कार में हुई कमी से आहत होकर पानी से भरा हुआ श्रीमतीजी की आंखों का स्टोर हाउस रिसने लगा----"जानते हो जब मेरे पापा शोपिंग के लिये जाने लगे मैंने रुपयों के लिये ड्रावर खोला.उसमे गांधी जी के फ़ोटो वाला एक भी नोट नहीं निकला.मेरी आंखों मे आंसू तैर गये....पापा क्या सोचे होंगे....उन्हें कितना बुरा लगा होगा ".

मैंने कहा---" इसमे बुरा लगनेवाली क्या बात है...मेरे ससुरजी ग्रेट हैं. उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा होगा "

" हां..वह कहने लगे कि कोई बात नहीं है, जो लोग आज के जमाने में सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं, गांधीजी उनसे दूर ही रहते हैं. आजकल वह भी उन बन्दरों से नफ़रत करते है जो उनके कहे अनुसार जीवन जीते थे. क्योंकि उन्हीं बन्दरों के चलते उन्हें गोली मारा गया था..."

मैंने समझाया----" डार्लिंग कहां से कहां बात ले जा रही हो. नोटों पर गांधीजी की तस्वीर होती है गांधीजी थोङे ही होते हैं.".वह फ़िर रोने लगी----"उनको तो गोडसे मरवाया गया था. अब तो उनकी तस्वीर ही बची है न ? ".

मैंने कहा---" स्वीटहर्ट गांधीजी तो हमारे दिल में रहते हैं ".

वह झला उठी---" मुझे बेवकूफ़ मत बनाओ छोटे से दिल में तो हर अच्छे लोग रहते हैं जिनसे हम प्यार करते हैं. लेकिन इतने महान हैं तो हमारे बङे से पेट में क्यों नहीं समा जाते जो खाली है."

मैं उछल पङा----" ब्लोग पे डालुंगा...डार्लिंग तुमने ऐसी बात कह दी जो आजतक बङे से बङे नेता भी नहीं कह पाये....मैं लिखुंगा कि जिसका पेट खाली है उसके पेट को भरो सिर्फ़ उसके दिल में ही जगह बनाने से क्या होगा.सबसे बङा सत्य तो ये है कि आज भी लोगों का पेट खाली है और सबसे बङी अहिंसा यह है कि भूखे पेट रहकर भी जिससे प्यार होता है हम उसे दिल में जगह दे देते हैं. जिसने हमारे लिये वस्त्र तक का त्याग कर दिया उसे हम दिल में जगह क्यों न दें चाहे वह महात्मा गांधी हों या मल्लिका शेरावत ".

( शुरु के तीन भाग krantidut.blogspot.com पर देख सकते हैं)

( नोट :- यह पोस्ट हमारे प्रिय अरविंद झा जी द्वारा लिखी गई है, तकनीकी कारणों से वे इसे स्वयं के ब्लॉग - क्रांतिदूत पर पोस्ट नहीं कर पा रहे हैं इसलिए यहाँ प्रकाशित है .... आपकी प्रतिक्रया अपेक्षित है, धन्यवाद )

Wednesday, September 22, 2010

ये आज की बात नहीं ..... रोज की मोहब्बत हैं !!!

हमने उससे तो
कुछ कहा ही नहीं,
वो जो रूठा था
बस रूठा था
अब चल के कैसे
हम मना लें उसे,
क्या करें फ़रियाद
और संभालें उसे

उसका रूठना भी
गजब ढाता है
होते हैं सामने
पर गुमसुम होतें है
उसकी ये अदा भी
जाने क्यूं
मुझको भाती है
खामोशियों में भी
मोहब्बत झलक जाती है

अजब होती हैं
रश्में मोहब्बत की
बजह भी हो
बे-वजह रूठ जाते हैं
रूठते भी हैं तो
बहुत इतराते हैं
हमको मालूम है
वो बे-वजह ही
रूठकर बैठे हैं
ये आज की बात नहीं
रोज की मोहब्बत हैं !

Tuesday, September 21, 2010

यादें ...

हाँ याद है मुझे
शाम छत पर
टहलना तेरा

और घंटों
चिड़ियों
सा
फुदकना तेरा

और राहों पर
आँखों का
भटकना तेरा

हाँ याद है मुझे
वो सब याद है !

राहों में मिलना
और गुमसुम सा
गुजर जाना तेरा

कहना
जुबां से कुछ
पर आँखों से
हाँ करना तेरा

हाँ याद है मुझे
सखियों से लड़ना
मेरे लिए
झगड़ पड़ना तेरा

हाँ याद तो है
वो सर्द भरी सुबह
कंपकंपाना तेरा
मेरी ओर दौड़ना
और ठहर जाना तेरा

और हाँ वो पल
बिदाई के भी
याद हैं मुझे
नजरें चुरा कर
बिदा होना तेरा

हाँ याद तो
और भी
बहुत कुछ है
बस यादें
यादें ही तो हैं
तेरे - मेरे बीच !

Monday, September 20, 2010

"मनी एंड मैनेजमेंट"

एक राज्य ... चाय पार्टी के बहाने तीन राजनैतिक पार्टियों की मीटिंग ... भ्रष्टाचारी, भुखमंगी भिखारी पार्टियों के मुखिया आपस में चर्चा करते हुए ... यार अपुन लोग कब तक इस तरह हाथ-पे-हाथ धरे बैठे रहेंगे ... कब तक राज्य में सरकारी नुमाइंदे शासन करते रहेंगे ... क्या इसलिए ही अपुन लोग चुनाव जीते हैं कि बाहर बैठकर तमाशा देखते रहें ... पूरे तीन महीने हो गए राष्ट्रपति शासन चलते हुए और हम लंगड़े-लूलों की तरह देख रहे हैं ... यार अगर यही हालत दो-तीन महीने और चलती रही तो हमारे तो खाने-पीने के लाले पड़ जायेंगे ... करो भईय्या कुछ करो, कुछ सोचो कहीं ऐसा हो की भ्रष्टाचार की फाइलें खुलने लगें और हम एक - एक कर धीरे - धीरे जेल के मेहमान बन जाएँ ... भईय्या ये लोकतंत्र है और लोकतंत्र में हमें अर्थात जनता को ही शासन करने का मूल अधिकार है ...

... बात तो सभी सही हैं, अगर बहुमत नहीं है तो क्या हुआ फिर भी सत्ता पर अपना ही अधिकार है ... एक काम करो आपस में लड़ना - झगड़ना बंद करो और एक जुट होकर सत्ता हथियाने का कोई उपाय ढूंढो ... और हाँ आपस में फलां कुर्सी मेरी रहेगी, फलां उसकी रहेगी इस पचड़े में भी पड़ना ठीक होगा, सत्ता में रहेंगे तो कुर्सी कोई भी हो माल तो मिलेगा ही ... हाँ हाँ बिलकुल सत्यवचन है लेकिन अपन तीनों मिलकर सरकार भी तो नहीं बना सकते, पांच सीटें कम पड़ रही हैं, और जिनके पास सीटें हैं वे हमारे घोर विरोधी हैं ... भ्रष्टाचारी पार्टी के प्रमुख ने कहा - एक काम करो पांच सीटों का जुगाड़ मैं करता हूँ पर एक शर्त है मुख्यमंत्री मैं रहूँगा तथा पांच सीटें जहां से जुगाड़ करूंगा उन्हें गृहमंत्री का पद देना पडेगा, बांकी सारे पद हम सब मिलकर बांट लेंगे, अगर हाँ है तो बोलो ... हाँ हाँ सब मंजूर है ... सब मंजूर है ...

... ( भ्रष्टाचार पार्टी के मुखिया जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं अपने घोर - महाघोर विरोधी पार्टी के मुखिया के पास पहुंचे ) देखो भईय्या अपुन लोग ठहरे नेता, और सत्ता से बाहर बैठना अपुन लोगों के हित में नहीं है, आखिर कब तक राज्य में राष्ट्रपति शासन चलता रहेगा, कब तक अपुन एक-दूसरे से खुन्नस पाले बैठे रहेंगे, तनिक सोचो इस खुन्नस से आपको या हमको क्या मिल रहा है, सब ठनठन गोपाल है, अगर ऐसा ही चलता रहा तो कहीं लेने-के-देने पड़ जाएं, लगता है अपुन लोगों का जेल जाने का योग बन रहा है यदि जल्द सत्ता में आये तो कहीं पुरानी फाइलें खुल जाएं, सोचो ज़रा सोचो ... हाँ भाई जी कह तो सही रहे हो, पर हम कर भी क्या सकते हैं ... बहुत कुछ कर सकते हैं सत्ता बना सकते हैं ... कैसे, जल्द बताओ कैसे ? ... मिलकर सरकार बना लेते हैं ... जनता क्या सोचेगी ... क्या भईय्या आप भी मूर्खों के बारे में सोचने बैठ गए ...

... तो ठीक है जैसा बोले वैसा कर लेते हैं ... ये हुई बात ... आपके पास पांच सीटें हैं इसलिए आपको गृहमंत्रालय वो भी बिना रोक-टोक के, ठीक है ... हाँ चल जाएगा और मुख्यमंत्री ... वो मैं रहूँगा, और बांकी सब को भी संभाल लूंगा, बस एक शर्त है, शर्त ये है कि कितनी भी अंदरूनी बिकट-से-बिकट परिस्थिति क्यों बन जाए पर ( ०६ ) महीने के पहले सरकार गिरना नहीं चाहिए ... वो क्यों ? ... वो इसलिए, हम सब को आखिर प्रदेश में ही राजनीति करना है, चुनाव लड़ने हैं, जनता को देखना है, मनाना है, संभालना है, अंदरूनी कलह सरकार गिर जाने से जो बदनामी होती है, जो छीछालेदर होती है वह हमें मुंह दिखाने का भी नहीं छोड़ती है, याद है पिछले समय की स्थिति ... हाँ हाँ बिलकुल सही कह रहे हो, चाहे जो भी हो जाए सरकार गिरने नहीं देंगे ...

... एक बात तो बताओ मुख्यमंत्री जी, मेरा मतलब होने वाले मुख्यमंत्री जी ... हाँ हाँ पूछिए गृहमंत्री जी ... इस बेमेल एवं हजम होने वाले गठबंधन पर जनता तथा मीडिया को क्या जवाब देंगे ... मीडिया !!! ... आप, हम और मीडिया सब एक थाली के चट्टे-बट्टे हैं सब का एक ही "मंत्र" है "मनी एंड मैनेजमेंट" ... और रही बात जनता की, तो बस एक जवाब, हमारा प्रदेश विकास के क्षेत्र में देश के अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़ते जा रहा था जो हमसे देखा नहीं गया, इसलिए हमने अपने देश के मूलभूत सिद्धांत "अनेकता में एकता " को बुलंद करना उचित समझा तथा राज्य के विकास के लिए हम एक हुए हैं ..... क्या बोलते हो ... "अनेकता में एकता" जिन्दावाद ... जिन्दावाद - जिन्दावाद ... जिन्दावाद - जिन्दावाद !!!

Sunday, September 19, 2010

नक्सली उन्मूलन की दिशा में शांतिवार्ता का मार्ग कितना उचित !!!

यह सिर्फ खेद का वरन शर्म का भी विषय है कि आज भी एक वर्ग नक्सलवाद को विचारधारा मानते हुए नक्सली कमांडर आजाद की पुलिस मुठभेड़ में हुई मौत को ह्त्या मान कर चल रहा है, सचमुच यह एक सच्चा लोकतंत्र है जहां इस तरह की भावनाएं विचारधाराएं फल-फूल रही हैं

नक्सली कमांडर आजाद की मौत को ह्त्या मानने का सीधा-सीधा तात्पर्य पुलिस को हत्यारा घोषित करना है जब एक बुद्धिजीवी वर्ग इसे ह्त्या मान सकता है तो कल उसे शहीद की पदवी से भी नवाजा जाएगा ... धन्य है लोकतंत्र की माया जहां कुछ भी संभव है

मैं यह नहीं कहता कि शान्ति वार्ता का मार्ग अनुचित अव्यवहारिक है पर यह जरुर कहूंगा कि जो लोग शान्ति वार्ता के पक्षधर हैं उन्हें क्या अपने आप पर पूर्ण विश्वास है कि उनके एक इशारे पर नक्सली हथियार छोड़ देंगे, यदि ऐसा है तो शान्ति वार्ता का प्रस्ताव उचित है अन्यथा सब बेकार है

मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना तो यह है कि जमीन जंगल में सक्रीय नक्सली, शान्ति वार्ता की पहल कर रहे बुद्धिजीवियों के नियंत्रण से बहुत बाहर हैं यदि ऐसा नहीं है तो वे एक बार आजमा कर देख लें, कहीं ऐसा हो कि शान्ति वार्ता का कोई सकारात्मक नतीजा निकल आये और नक्सली अपनी मनमानी करते हुए फैसले को मानने से साफ़ तौर पर इंकार कर दें ... ज़रा सोचो उस समय क्या होगा !!


नक्सलवाद, नक्सलबाड़ी में शुरू हुआ जन आन्दोलन नहीं रहा वरन एक नक्सली समस्या बन गया है ... यदि आज कोई यह कहे कि नक्सलवाद शोषण अन्याय के विरुद्ध आवाज है, विकास के लिए उठाया हुआ कदम है, एक जन आन्दोलन है तो सब बेईमानी है।

एक बात और उभर कर चल रही है वो है माओवाद, नक्सलवाद को माओवाद की संज्ञा से क्यों पारितोषित किया जा रहा है, नक्सलवाद और माओवाद में जमीन - आसमान का फर्क है दोनों के मूलभूत सिद्धांतों उद्देश्यों की व्यवहारिकता में कोई मेल नहीं है और ही हो सकता है

नक्सलवाद एक समस्या है इसके समाधान के लिए शांतिवार्ता का मार्ग भी अपनाया जा सकता है पर शांतिवार्ता के लिए भी कुछ समय सीमा तय किया जाना बेहतर होगा अन्यथा समय बर्बाद करने से ज्यादा कुछ नहीं जान पड़ता ... बेहतर तो ये होगा कि नक्सली उन्मूलन के लिए एक ठोस व कारगर रणनीति तैयार की जाए तथा नक्सलियों का राम नाम सत्य किया जाए ।

Saturday, September 18, 2010

ये ब्लागदुनिया है ............ इसका दस्तूर निराला है !!!

हाँ ये सच है
मैं लिखता हूँ
अच्छा या बुरा
नहीं जानता
कोशिश करूं
संभव नहीं
जान पाना
अच्छाई - बुराई
खुद की

कुछ दिनों से
महसूस हुआ
कुछ अजब सा
कोशिश की
जानने-समझने की
क्या समझा !
शायद बर्चस्व की
लड़ाई चल रही थी
कुछ लोग आपस में
लड़ रहे थे
नंबरों की दौड़ में
कोई आगे तो कोई पीछे
चल रहे थे

पर मैं उनके साथ
नहीं था लड़ाई में
मुझे कुछ लेना-देना
भी नहीं था
लड़ाई के साथ
पर क्या करता
सिस्टम का अंग तो था
शायद इसलिए ही
उन्होंने मुझे भी
लड़ाई का हिस्सा समझ
झटकना शुरू कर दिया

मुझे लगा
लोग बेवजह ही
मुझे भी अपने साथ
समझ रहे हैं
और लड़ने-भिड़ने का
भरपूर प्रयास कर रहे हैं
क्या करता
कोई रास्ता नहीं था
मैंने चाल बदली
रफ़्तार बदली
उस दौड़ से
बर्चस्व की लड़ाई से
दरकिनार किया खुद को

अब सुकूं से
चल रहा हूँ
बढ़ रहा हूँ
चाल अपनी है
रफ़्तार अपनी है
कछुवे-सी ही सही
क्या फर्क !
अब कोई साथ
कोई पीछे
सब के सब आगे
बहुत आगे ही दौड़ रहे हैं
और मैं
अपनी मस्ती में
मदमस्त सा
बढ़ रहा हूँ
ये ब्लागदुनिया है
इसका दस्तूर निराला है !!!

Friday, September 17, 2010

"बहु-कम-नौकरानी"

प्रियंका गुमसुम क्यों बैठी है दिमाग में क्या गुन्ताडा चल रहा है ... कुछ नहीं यार करिश्मा ... कुछ तो जरुर है भले तू मेरे साथ शेयर करना चाहे ... अरे यार बचपन से आज तक ऐसी कौन-सी बात है जिसे शेयर किया हो ... फिर बता ना क्या बात है ... यार शादी की बात चल रही है घर वालों ने तीन लडके पसंद किये हैं उनमें से सिलेक्ट करने को कह रहे हैं ... अरे तो इसमे परेशानी की क्या बात है किसी एक को पसंद कर ले, नहीं तो मुझे बोल मैं देख लेती हूँ मुझे तेरी पसंद मालुम है ... यार ये बात नहीं है ... तो क्या बात है ...

... बात दर-असल यह है कि एक तो बैंक में मैनेजर है, दूसरा कालेज में प्रोफ़ेसर है और तीसरा स्टेशन मास्टर है ... तीनों ठीक हैं सुख - शान्ति से रहेगी, फिर इतना संकोच क्यों ... अरे यार तीनों के तीनों स्ट्रगलर नहीं लग रहे ... क्या मतलब है तेरा, खुल कर बोल ... मेरा मतलब ये तीनों क्या कमाएंगे और क्या खिलाएंगे, तीनों के तीनों फंटूस लग रहे हैं और तीनों में कोई ग्लैमर भी नजर नहीं रहा है ... देख यार खाने - कमाने का तो ऐसा है तीनों का जाब एवरेज है मेरा मतलब ठीक-ठाक ही है, रही बात ग्लैमर की, उसे तू पूरा कर देना ...

... ग्लैमर की कमी जब मुझे ही पूरी करनी है तो इन डिसीप्लीन टाईप के लोगों के साथ शादी करने का क्या औचित्य है ... क्या मतलब है तेरा ... सीधा-सीधा मतलब है शादी के बाद मुझे इनके घर में "बहु-कम-नौकरानी" की भूमिका निभानी पड़ेगी, सुबह से शाम तक कचर-कचर, और जब दिन भर की थकान रहेगी तो रात को भी बस जैसे-तैसे, अब ये बता इस रूटीन में ग्लैमर कहाँ होगा ? सीधे शब्दों में कहूं तो मेरी वाट लग जायेगी !! ... अरे यार तू बिलकुल सही सोच रही है, इस मसले पर मैंने तो कभी सोचा ही नहीं ... वही तो सोच रही हूँ क्या किया जाए ...

... सोच सोच बिलकुल सही सोच रही है आखिर भविष्य का सवाल है, सिर्फ तेरे वरन मेरे भी, चल अच्छा हुआ समय रहते तूने मेरे कान खोल दिए ... यार करिश्मा ये बता अपन लोग मिडिल क्लास फैमिली से हैं कोई करोड़पति - अरबपति लड़का भी शादी के लिए नहीं मिलेगा, फिर क्या किया जाए, तू भी तो दिमाग लगा ... यार आज-कल भ्रष्टाचार का बहुत बोल-बाला है करोड़ों - अरबों के घोटाले चल रहे हैं ...

... ( तीन-चार मिनट सोचने के बाद प्रियंका बोली ) यार बिलकुल सही आइडिया दिया तूने "अदभुत-यार-अदभुत" ... कैसे बता ना यार ... किसी ऐसे विभाग के लडके को पसंद करते हैं जहां भ्रष्टाचार-ही-भ्रष्टाचार हो, करोड़ों - अरबों, यार मौजे-ही-मौजे रहेंगे और ग्लैमर-ही-ग्लैमर, क्या बोलती तू ... क्या मैं बोलूं ! झकास आइडिया है यार झकास ... चल आज इस शानदार आईडिया को सिलेबरेट किया जाए ... यार सिलेबरेशन तो हो ही जाएगा, अपन दोनों की शादी होने तक अब ये दुआ भी करनी पड़ेगी कि दूसरी लड़कियां भी अपने टाईप सोचने लगें ... हाँ यार अपना आईडिया कहीं ... चल छोड़ ना यार अपने जैसे लाखों में एक-दो ही होते हैं ... !!

Thursday, September 16, 2010

नक्सलवाद,स्वामी अग्निवेश,छत्तीसगढ़ मीडिया ... विवाद क्यों ?

क्या सचमुच छत्तीसगढ़ मीडिया बिका हुआ है ? ... यह प्रश्न उठाना लाजिमी है, उठे भी क्यों जब बड़े बड़े लोग टीका-टिप्पणी पर उतर आये हों ... टीका-टिप्पणी भी किसी सार्थक मुद्दे पर होकर स्वार्थगत अस्तित्व के प्रदर्शन को लेकर हो ... जहां व्यवहार में स्वार्थगत भावना (स्वार्थगत भावना से तात्पर्य नक्सलियों के अप्रत्यक्ष समर्थन से है) परिलक्षित हो रही हो वहां किसी समूह पर खासतौर पर "छत्तीसगढ़ मीडिया " पर ओछी टिप्पणी जाहिर कर देना कितना न्यायसंगत है !!

टीका-टिप्पणी का दौर जब शुरू हो ही गया है तो यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि किस मुद्दे पर टकराहट की स्थिति निर्मित हुई है ... हुआ दर-असल यह है कि "नक्सलवाद" की समस्या से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ जूझ रहा है और स्वामी अग्निवेश एक ऐसा व्यक्तित्व जो नक्सलवाद को शान्ति वार्ता के माध्यम से सुलझाने के पक्षधर हैं जो विगत दिनों शान्ति यात्रा पर छत्तीसगढ़ भ्रमण पर थे ... भ्रमण के दौरान उन्हें "छत्तीसगढ़ मीडिया " से असहजता महसूस हुई तथा नक्सली मुद्दे पर विरोध के स्वर भी सुनने पड़े ...

... इसी सन्दर्भ में स्वामी अग्निवेश ने राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका हंस में प्रकाशित लेख में अपना आक्रोश झुंझलाहट में प्रगट करते हुए छत्तीसगढ़ मीडिया को "उद्धोगपतियों के दलाल तथा मुख्यमंत्री के समजाए हुए" हैं की संज्ञा देते हुए बिका हुआ घोषित कर दिया ... धन्य हैं स्वामी जी, जो झुंझलाहट में आपा ही खो बैठे ... अब प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्तित्व नक्सली उन्मूलन की दिशा में शान्ति वार्ता का पक्षधर हो, इस तरह ऊल-जलूल प्रतिक्रया जाहिर कर रहा हो, क्या वह शान्ति वार्ता के लिए उपयुक्त हो सकता है ?

इस टीका-टिप्पणी विवाद की जड़ है नक्सली समस्या, इसलिए मूल मुद्दे पर चर्चा भी लाजिमी है इस मुद्दे पर मेरा मानना तो यह है कि देश में व्याप्त नक्सली समस्या किसी गाँव विशेष में चल रही छोटी-मोटी समस्या नहीं है जो बैठकर शान्ति वार्ता से सहजता से सुलझ जाए ... साथ ही साथ यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि नक्सलवाद का अंदरूनी रूप से व्यवसायीकरण हो गया है !! ... यह मुद्दा शान्ति वार्ता से सुलझने के दायरे से काफी आगे निकल गया जान पड़ता है इसके समाधान के लिए ठोस कारगर नीति - रणनीति ही सार्थक सफल सिद्ध हो सकती है !

Wednesday, September 15, 2010

... जय जय लोकतंत्र !!!

... तालियों की गड-गडगडाहट के साथ भाषण शुरू ... राष्ट्र, राज्य, संभाग, जिले के संचालक, पालनहार, प्रमुख, प्रधान, मठाधीश बगैरह बगैरह ... दूसरे शब्दों में इन्हें एक आम इंसान "माई-बाप" की संज्ञा देता है ... इनके ही भरोसे देश चल रहा है अर्थात इनके ही हाथों में बागडोर है, ये जैसा चाहें वैसा संचालन करेंगे और संचालन कर रहे हैं ... बागडोर खिंच रही है और देश चल भी रहा है पर ... अब यहाँ ये पर कहाँ से गया ... पर का आना लाजिमी है क्योंकि देश चल तो रहा है पर विकास दिखाई नहीं दे रहा, विकास हो भी रहा है तो कागजों में, फाइलों में ... पर भ्रष्टाचार, अनाचार, दुराचार, शोषण, कालाबाजारी, मिलावटखोरी, मारामारी, सार्वजनिक अर्थात जगजाहिर है

यह खेल कोई लुके-छिपे नहीं चल रहा वरन खुल्लम-खुल्ला चल रहा है ... चल भी इसलिए रहा है क्योंकि सभी मिलकर चला रहे हैं, जिस काम को सिस्टम के सभी मठाधीश मिलकर चलायें भला उसे कोई कैसे रोक सकता है, अगर कोई रोकने का दुस्साहस करे भी तो क्या फर्क पड़ता है ... वह दुस्साहस कर समाधान के लिए किसी किसी के सामने तो जाएगा, अब जिसके सामने जाएगा ... वह भी उसी सिस्टम का हिस्सा है, आश्वासन मिलेगा और मिलते रहेगा ... इतनी देर तक आश्वासन मिलते रहेगा जब तक दुस्साहसी का साहस ठंडा पड़ जाए ... ये तो सभी जानते हैं कि जब जोश ठंडा पड़ जाता है तो इंसान बड़े-से-बड़े गुनाह को - गुनाहगार को माफ़ कर देता है, यह एक मानवीय नेचर है

समस्या, समस्या के खिलाफ आवाज, समाधान के लिए आश्वासन पर आश्वासन ... देर-सबेर समस्याओं का ठंडा बस्ता, आखिर कब तक ठंडा बस्ता बनता रहेगा, कब तक आम नागरिकों की आवाज सिस्टम के लचर-पचर, लुंज-पुंज रबईये में गुम होते रहेगी ... लोकतंत्र, प्रजातंत्र, जनतंत्र का क्या यही मतलब है कि चलने दो, चलने दो, जो चल रहा है उसे चलने दो ... आखिर कब तक यह रबैय्या चलता रहेगा, कब तक हम लोकतंत्र की चक्की में पिसते रहेंगे ... या फिर किसी दिन जिनके हांथों में लोकतंत्र की बागडोर है वे खुद ही लोकतंत्र की गिर रही गरिमा को संभालेंगे ... पर ऐसा कब होगा ... क्या हम सच्चे लोकतंत्र को देख पायेंगे !!!

... ( फोन की घंटी बजी ... नींद से जागते हुए ... तकिये से मुंह निकालते हुए ... कालर आई-डी पर नंबर देखते हुए ) ... हाँ भईय्या प्रणाम ... क्यों शाम को पांच बजे तू सो रहा है ... सो रहा हूँ , नहीं भईय्या मैं तो भाषण दे रहा था ... कहाँ भाषण दे रहा है तेरी आवाज सुनकर तो ऐसा लग रहा है जैसे बिस्तर पर पडा है और नींद में है ... नहीं भईय्या मैं तो दिल्ली में गांधी आडिटोरियम हाल में "लोकतंत्र" पर भाषण दे रहा था ... होश में दो घंटे पहले तो तू मुझसे मिलकर गया है फिर दिल्ली कैसे पहुँच जाएगा ... ( भईय्या की बातें सुनकर करेंट सा आया ... खुद को झंकझोरते हुए देखा तो घर के बिस्तर पर देखा ) ... अरे भईय्या आप सच कह रहे हो शायद मैं सपना देख रहा था ... मतलब अब तुम सपने में भी गुल खिलाने लगे हो ... नहीं भईय्या, आज सपना ही सही कल हकीकत में होगा, आज मैंने "लोकतंत्र" पर जो भाषण दिया है अच्छे-अच्छों की बैंड बजा कर रख दी थी, मगर अफसोस ये सब सपने में चल रहा था ...खैर कोई बात नहीं तू निराश मत हो मुझे पता है तू एक दिन "लोकतंत्र " का सच्चा रूप सामने ला कर ही रहेगा ... हाँ भईय्या एक दिन ऐसा ही होगा जय जय लोकतंत्र ... जय जय लोकतंत्र !!!

... जी सर "हैप्पी हिन्दी दिवस" !!!

... सर कल १४ सितम्बर है ... तो क्या हुआ, होने दो, अपने को क्या लेना-देना, एक काम करो तुम उस "गाडी" को अभी दो घंटे में मेरे पास भिजवा दो मुझे उसे लेकर जंगल घूमने जाना है ... सर कौन सी "गाडी" ! ... अरे वही वाली जिसे तुमने पिछले हफ्ते दौरे के समय सर्किट हाऊस भिजवाया था ... (तनिक सोचने के बाद ) अरे हाँ सर आपका मतलब उस "गाडी" से है ... हाँ हाँ उसी से है, बहुत लक्जरी "गाडी" है ...

... सर उसे छोडो, उसे तो मैं भिजवा ही दूंगा किन्तु चार-पांच दिन के बाद ही भेज पाऊंगा ... क्यों, क्या हो गया ... सर अभी एक घंटा पहले ही उसे बुलवा रहा था पर वह अभी गैरेज में पडी है कम से कम तीन दिन तो लग ही जायेंगे ठीक होने में, सर कल १४ सितम्बर है "हिन्दी दिवस" ... अरे पहले क्यों नहीं बताया ... सर वही तो बताने की कोशिश कर रहा हूँ पर आप हो कि सुनते ही नहीं हो ...

... ये तो एक नई समस्या आ गई "हिन्दी दिवस" ... करो कुछ करो, कहीं कुछ लेने के देने न पड़ जाएँ ... वही तो कह रहा हूँ सर आप ठहरे विभाग के मंत्री और मैं विभाग का सर्वे-सर्वा ... एक काम करो, तुम मेरे पास आओ और बैठ कर कुछ प्लान बनाओ ... ठीक है सर कुछ न कुछ तो करना ही पडेगा, बस पंद्रह मिनट में पहुँच रहा हूँ सर ... (फोन डिस्कनेक्ट ) ...

... (पंद्रह मिनट बाद ) हाँ सर हाजिर हूँ बताएं क्या करना है ... अबे "सुपर माडल" तू मुझसे पूछ रहा है क्या करना है तू नहीं जानता क्या, मुझे "हिन्दी" से "एलर्जी टाईप" की कुछ बीमारी है मैंने मुख्यमंत्री से कितना कहा कि मुझे इस समस्या में मत फंसाओ, कोई सुनता ही नहीं अब क्या बोलूँ तू तो जानता है मुझे "हिन्दी" न तो लिखना आता है और न ही पढ़ना, तुम लोग के भरोसे काम चल रहा है, कुछ सोचो मुंह दिखाते हुए मत बैठे रहो, और हाँ ये हिन्दी-विन्दी दिवस बंद करने का कोई उपाय सूझे तो उसे पहले बताना ... जी सर ...

... सर कल आपका एक प्रोग्राम रख लेते हैं जिसमें आप "हिन्दी दिवस" पर पांच मिनट का भाषण बोलेंगे, बाकी सब मैं संभाल लूंगा आपको सिर्फ पांच मिनट संभालना है ... अरे मेरे "कोहिनूर हीरे" मुझे क्यों फंसा रहा है इस पांच मिनट के लफड़े में और भला मैं कैसे हिन्दी में भाषण दे पाऊंगा ... कुछ तो करना ही पडेगा सर ... एक काम करो वो दिया-अगरबत्ती जलाने तथा फूल-माला पहनाने का काम मुझे करने दो बाकी सब तुम कर लेना ... भाषण ... वो भी तुम पढ़ देना मेरी ओर से ...

... मैं धन्य हो गया सर क्या बुद्धि पाई है आपने ... अरे ऐसे वैसे ही मंत्री थोड़े ही बन गए हैं, ठीक है सब फायनल हो गया ... जी सर बिलकुल फायनल है ... एक काम और करना प्रोग्राम देखने वालों में पंद्रह-बीस अपने चेले-चपाटों को भी बैठाल देना जो समय समय पर तालियाँ ठोकते रहें ... जी सर ...

... (दूसरे दिन ) हिन्दी दिवस कार्यक्रम स्टार्ट ... तालिओं-पे-तालियाँ ... प्रोग्राम संपन्न ... खूब वाह वाही ... (शाम को पुन: मुलाक़ात के क्षण ) ... सर आज तो कमाल हो गया मीडिया वालों ने चार चाँद लगा दिए प्रोग्राम में, दिन भर चर्चा-ही-चर्चा है चारों तरफ आपका ही जय जय कारा है ... ये हुई न बात ... सर एक बात समझ में नहीं आई की ये मीडिया वाले ... अरे तू छोड़ उसको ये बता आजकल क्या "मैनेज" नहीं होता ... मान गए सर आपको और आपके "मैनेजमेंट" को ...

... अरे सुन आज "हिन्दी दिवस" है समझ रहा है मेरा मतलब ... नहीं सर ... तू बस "माडलिंग" करते रह, कान इधर ला कोई सुन न ले, आज हम हिन्दी दिवस को ही सिलेब्रेट करेंगे समझ गया ... जी जी जी ... आज हिन्दी, बिलकुल देसी ... सर सर हाँ सर समझ गया ... अब तू तो जानता है सुबह से ही सब "मैनेजमेंट" हो रहा है कुछ असल में हिन्दी दिवस भी हो जाए ... जी सर ... एक काम कर आज दोनों मिलकर साथ-साथ सिलेब्रेट करते हैं "हिन्दी दिवस" ... सर हो जाएगा ... अब क्यों खामोश खडा है जा इंतजाम में लग जा ... सर मैं ये सोच रहा हूँ हमारे जैसे लोग रहेंगे तो क्या होगा "हिन्दी" का ... ज्यादा इमोशनल मत बन एक नारा याद रख हैप्पी हिन्दी ... हैप्पी "हिन्दी दिवस" ... जी सर "हैप्पी हिन्दी दिवस"!!!

Tuesday, September 14, 2010

कामनवेल्थ गेम्स ... देह व्यापार सामाजिक बुराई या सामाजिक जरुरत ???

"देह व्यापार" बहुत सुना हुआ, जाना हुआ, समझा हुआ सा शब्द है, हो भी क्यों ... आखिर देह, तन, काया की माया ही अपरंपार है साथ में व्यापार शब्द भी जुडा है ... माया तो फिर माया है फिर देह की ही क्यों हो, प्रश्न माया या माया नगरी का नहीं है यह सम्पूर्ण जगत ही "माया नगरी" है

चलिए अब मुद्दे पे जाते हैं मुद्दा "देह व्यापार" का नहीं है, मुद्दा है "कामनवेल्थ गेम्स" का ... कामनवेल्थ गेम्स एक अंतर्राष्ट्रीय आयोजन है जिसमें सिर्फ खिलाड़ी, कोच, मैनेजमेंट, मीडिया के लोग देश-विदेश से आयेंगे वरन दर्शकों का विशाल समूह, झुण्ड, ग्रुप भी आयेगा ... लाखों लोगों का आना-जाना बना रहेगा

कामनवेल्थ गेम्स आयोजन के दौरान बड़े पैमाने पर देह व्यापार होने की शंका जाहिर की जा रही है, देश-विदेश से देह व्यापार से जुड़े लोगों खासतौर पर काल गर्ल्स, दलाल, को-आर्डीनेटर, मैनेजर, प्रोटेक्टर, इत्यादि लोगों का जमावड़ा लगना लगभग तय है ...

... ये तो कुछ भी नहीं, देह व्यापार का भरपूर आनंद उठाने वाले लोग, ग्राहक, शौक़ीन, दर्शक, खिलाड़ी, अनाडी, व्यापारी, टूरिस्ट इत्यादि तो अभी से देह व्यापार से जुड़े लोगों की अपेक्षा ज्यादा उत्सुक जिज्ञासु हो रहे होंगे ... खैर होना लाजिमी भी है आखिर भरपूर आनंद तो उन्हें ही उठाना है

देह व्यापार का विरोध भी आवश्यक है और इस कार्य के लिए हिन्दुस्तानी मीडिया पर्याप्त है, सिर्फ टेलीविजन न्यूज चैनल्स पर वरन प्रिंट मीडिया में भी विरोध की लौ फड-फडाने लगी है ... जायज भी है, पर विरोध कितना जायज है यह सवाल जरुर उठता है ...

... अब सवाल उठने-उठाने की बात गई है तो इस पर चर्चा भी आवश्यक है, चर्चा इसलिए कि विरोध करना अपने देश में एक फैशन-सा बन गया है, क्या सही है - क्या गलत है यह तो बहुत दूर का विषय है ... खैर चलो सही-गलत को भी छोड़ देते हैं ...

... असल चर्चा पर जाते हैं जिस आयोजन में लाखों लोगों का आना-जाना बना रहेगा ... सभी लोग हर क्षण मौज-मस्ती, खाने-पीने, मांस-मदिरा का भरपूर लुत्फ़ उठाने में मस्त व्यस्त रहेंगे तो स्वाभाविक है लोग डगमगायेंगे ...

... डगमगायेंगे तो निश्चित ही छेड़छाड़, छींटाकशी, किडनेपिंग, रेप की घटनाएं घटित होंगी, जब ये घटनाएं होंगी तब अपना देश कितना शर्मसार होगा ? ... देह व्यापार जो होगा वह उतना शर्मसार नहीं करेगा जितना ये घटनाएं शर्मसार करेंगी !!!

... क्या हम भूल रहे हैं कि अन्य देशों में इस तरह के विशाल आयोजन के समय देह व्यापार से जुड़े लोगों को विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं !!!... क्यों, किसलिए ... शायद इसलिए कि छेड़छाड़, किडनेपिंग, रेप जैसी आपराधिक घटनाओं की बजह से शर्मसार होना पड़े !!!

... खैर समस्याएँ तो हैं और बनी रहेंगी, देह व्यापार सदियों से चलते रहा है संभव है आगे भी चलता रहे ... मेरा मानना तो यह है कि कभी-कभी देह व्यापार समस्या के रूप में नजर आकर समाधान के रूप में नजर आता है ... एक ज्वलंत प्रश्न छोड़ रहा हूँ ... देह व्यापार सामाजिक बुराई है या सामाजिक जरुरत ???