Wednesday, November 30, 2011

फर्क ...

किसी के होने, न होने से
फर्क नहीं पड़ता !
फर्क पड़ता है
तुम्हारे होने, न होने से !
तुम्हारे -
हँसने
मुस्कुराने
चहचहाने
खिलखिलाने ...
से फर्क पड़ता है मुझे
क्यूँ, क्योंकि -
तुम, तुम नहीं, मैं हूँ ... !!

Tuesday, November 29, 2011

मुझे ही गुनगुनाना चाहता है ...

गीत-गजल तो मैं हूँ नहीं 'उदय', फिर भी
वो मुझे ही गुनगुनाना चाहता है !

गर्म साँसें रोक पाना मुमकिन नहीं उससे, फिर भी
वो मुझसे सिमट के राह चलना चाहता है !

दुश्मन कहते थकता नहीं मुझको, फिर भी
वो मेरे संग ही कदम बढ़ाना चाहता है !

कल सब, बिछड़ के दूर हो जाऊंगा उससे, फिर भी
वो मुझे ही आजमाना चाहता है !

जिंदगी के सफ़र में उसे यकीं नहीं है मुझपे, फिर भी
वो मेरी यादों को सफ़र में चाहता है !

दिन के उजालों में उसे परहेज है मुझसे, फिर भी
वो अंधेरों में मुझे ही हमसफ़र चाहता है !

दो घड़ी का सांथ भी गंवारा नहीं उसको, फिर भी
वो मेरे ही संग जिंदगी बिताना चाहता है !

पत्थर दिल हूँ मैं, यह कहता फिरे है, फिर भी
वो इबादत में मुझे ही चाहता है !

गीत-गजल तो मैं हूँ नहीं 'उदय', फिर भी
वो मुझे ही गुनगुनाना चाहता है !!

... इसी में मस्त रहते हैं !!

कल एक शख्स 'खुदा' सा नजर आया था हमें
आज वह भी, उँगलियों के कटघरे में है खडा !
...
आज फिर से एक आस दिल में जगाई है हमने
जो तन्हाई में खोया था, भीड़ में मिल जाएगा !
...
क्यूँ आसमां से होड़, आज हुई है मेरी 'उदय'
जबकि देती रही सुकूं, अब तक मुझे जमीं !
...
'खुदा' जाने, ये मंजर, कब तलक यूँ चलते रहेंगे
न तो वो कुछ खुद कहेंगे, न हमें कुछ कहने देंगे !
...
कब तक वो रहेंगे चुप, कब तक हम रहेंगे चुप
क्यूँ न आज, ये किस्सा यहीं ख़त्म किया जाए !
...
तुम से मिलकर, हम होश खो बैठे हैं 'उदय'
सच ! अब न पूंछो, हमारा ठिकाना क्या है !
...
किसी की पसंद को, नापसंद कहने का हक़ हमें नहीं है 'उदय'
उफ़ ! फिर भी लोग हैं, जो इसी में मस्त रहते हैं !!
...
न जाने कौन है जो इस बस्ती में मुझसा फरेबी है
बात ही बात में, दो के चार करता है !
...
झंडा पकड़ के घूमना तासीर है जिनकी
वो कह रहे हैं हमको, चिंकोटते हैं हम !
...
गर वक्त ने चाहा तो, एक दिन हम तुम्हें भी रास आएंगे
आज न सही, किसी न किसी दिन, तुम्हारी दाद पाएंगे !

Sunday, November 27, 2011

कब, कैसे, कौन ...

कदम मेरे
उतने तेज नहीं चलते
जितने
शब्द मेरे चल पड़ते हैं !

फिर भी
चलते दोनों हैं
पर चलते
अपनी मर्जी से !

तन थक जाए
कदम रुकें ...
मन थक जाए
शब्द रुकें ...

रुक-रुक के
चलना, बढ़ना
दोनों को
हरदम होता है !

अब देखें
कब, कैसे, कौन
पहुंचता है
एक दूजे से पहले
मंजिल पे ... !!

Saturday, November 26, 2011

मृत्यु ही मेरा मोक्ष है ...

मैं अब और, एक दिन भी
जीना नहीं चाहता हूँ
तुम मुझे फांसी दे दो
मेरे हांथों ढेरों बेगुनाह मारे गए हैं
मैंने गुनाह किये है
सच ! मैं मर जाना चाहता हूँ !!

मैंने बम फोड़े, गोलियां चलाई हैं
मैंने खून बहाया है
मैंने ढेरों जानें ली हैं
हाँ, मैं गुनहगार हूँ
मुझे क्यूँ ज़िंदा रखे हुए हो !
सच ! मैं मर जाना चाहता हूँ !!

क्यूँ मेरी फ़ाइल तुम लोग
कस के पकड़ रखे हो
छोडो, जाने दो
मत उलझाओ मुझे
मैं खुद अब मोक्ष चाहता हूँ
सच ! मैं मर जाना चाहता हूँ !!

जो मेरे हांथों मारे गए हैं
उन सब की आत्माएं
उनके परिजनों की बद-दुआएं
मुझे सता रही हैं
मुझे सोने नहीं दे रही हैं !
सच ! मैं मर जाना चाहता हूँ !!

मृत्यु ही मेरा प्रायश्चित है
मृत्यु ही मेरा मोक्ष है
हाँ, मैं कह रहा हूँ
मैं अब जीना नहीं चाहता हूँ
अब तो मुझे फांसी दे दो !
सच ! मैं मर जाना चाहता हूँ !!

Friday, November 25, 2011

अफसोस ...

'खुदा' जाने, कब से
वह खुद की कीमत लगा के
बाजार में जा बैठा था !
मगर अफसोस
उसे आज तक
कोई खरीददार न मिला !!

सर्टिफिकेट ...

मुद्दे की बात ये नहीं है
कि -
मैं
कवि हूँ
मुद्दे की बात तो ये है
कि -
मैं
कवि क्यूँ हूँ !

जब कविताओं की समझ नहीं है
कोई ज्ञान नहीं है
और तो और -
कोई पुराना अनुभव भी नहीं है !

चलो, ठीक है, मान लेते हैं
कि अनुभव नहीं है
अनुभव नहीं है तो नहीं है
फिर भी चल जाएगा !

पर यार, तू ही बता
बिना किसी के सर्टिफिकेट के -
इस लाइन में
तेरा काम कैसे चल पायेगा !

सर्टिफिकेट, कौन देगा ?
बहुत से घूम रहे हैं
खुद को गुरु, किसी का चेला
कहते, बोलते हुए
गुरु तो गुरु, चेले भी -
तैयार हैं, देने के लिए
सर्टिफिकेट, जय जयकार है !

चांटा ...

क्या पता
भ्रष्टाचारी मंसूबों पे
जहां
क़ानून-कायदा
बेअसर हो जाए
वहां
चांटा टाईप की कोई चीज
असर कर जाए !
ये कलयुग है मेरे भाई
न जाने
कौन सी दवा -
कब, किस बीमारी पे
काम कर जाए !!

Thursday, November 24, 2011

... ये डकार नहीं लेंगे !

सच ! अभी भी वक्त है यारो, संभल जाओ, सुधर जाओ
कहीं ऐंसा न हो, घर से निकलते ही तुम लात खा जाओ !
...
एक चांटे से एक हजार करोड़ बसूल हो गए हैं यारो
अभी तो, हजारों हजार करोड़ का हिसाब बांकी है !!
...
अगर वो चाह ले तो, खुदी को बेच के दम ले
मौकापरस्ती का, वह बड़ा फनकार है यारो !
...
मोटे लोग हैं, जूते, चप्पल, चांटे, क्या उखाड़ लेंगे
हजारों हजार करोड़ गटक के, ये डकार नहीं लेंगे !
...
'खुदा' जाने, कब तलक ये सिलसिला चलते रहेगा
मुल्क में मेरे, नंगे-लुच्चों का हौसला बढ़ते रहेगा !
...
न तू रंज कर, और न मुझे ही रंज होने दे
सूखी पडी जमीं को तू आज भीग जाने दे !
...
काश ! खुशियों के भी, अपने मिजाज होते
फिर तो अपने भी मिजाज, लाजवाब होते !

चांटे की निंदा ...

मुझे बहुत अफसोस है
कि-
मेरे एक भले व निर्दोष सांथी को
एक सिरफिरे ने -
बेवजह चांटा जड़ दिया है
मैं उस चांटे की घोर निंदा करता हूँ
और यह आशा करता हूँ
कि -
इस तरह की
चांटे मारने वाली घटनाएँ
दोबारा नहीं होंगी !

इस तरह की घटनाओं से
निसंदेह
हमारा लोकतंत्र कमजोर होगा
मैं मानता हूँ
कि -
इस दौरान -
मंहगाई
भ्रष्टाचार
घुटालेबाजी
जैसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है
लेकिन, इसका यह तात्पर्य नहीं है
कि -
हमारे युवा, आपा खो बैठें
और मेरे निर्दोष सांथियों पर
चांटे जैसे गंभीर प्रहार करें !

मैं घटना की निंदा करता हूँ
और युवाओं से आव्हान करता हूँ
कि -
वे इस तरह के हिंसक रास्ते छोड़ कर
सक्रीय राजनीति में आएं
और चुनावी अखाड़े में कूदकर
खुद को आजमाएं, जौहर दिखाएँ
क्यों, क्योंकि
हम अहिंसा के पुजारी हैं
तथा
एक ऐंसे लोकतंत्र के समर्थक हैं
जो हमें न सिर्फ आजादी प्रदान करता है
वरन हमें सुरक्षित भी रखता है !!

Wednesday, November 23, 2011

फर्क ...

फर्क है
ज़िंदा और मुर्दों में
फर्क है
वरिष्ठों और कनिष्ठों में
फर्क है
अफसरों और कर्मियों में
फर्क है
आदमी और औरत में
गर
कहीं फर्क नहीं है तो
दोनों के -
जज्बातों में नहीं है !!

एक बड़े लेखक की नजर ... गुच्च-पुच्च कविता पर !!

कल रात मैंने
एक बहुत बड़े लेखक को -
अपनी एक कविता के पास खड़े देखा
उसे देखकर मैं डर सा गया
लगा ऐंसे, जैंसे -
मैंने कुछ उट-पुटांग तो नहीं लिख छोड़ा है !

मैं गुप-चुप ढंग से करीब पहुँच कर
छिपकर बैठे बैठे देखने लगा
पहले तो साहब -
खड़े खड़े कविता देखते रहे
फिर, उन्होंने झुककर उसे उठाया
पढ़ा ...
फिर नीचे रख दिया !

कुछ देर बाद, फिर से उठाया
फिर से पढ़ा, पढ़कर ...
कुछ देर अपनी मुंडी ऊपर-नीचे हिलाते रहे
फिर उसे, नीचे रखकर आगे बढ़ गए
चार-: कदम आगे चलकर
फिर पीछे लौट आए
यह देखकर, मेरी साँसें तेज चलने लगीं !

सच कहूं -
मैं बहुत भयानक तरीके से डर गया
सोचा, कि कोई बहुत बढ़ा गुनाह हो गया, मुझसे
मैं सहमा सहमा देखता रहा
उन्होंने फिर से कविता उठाई
और देखते देखते, कुछ गुच्च-पुच्च किया
और गुच्च-पुच्च कर चले गए !

क्या किया, वो ही जानें, मैं तो डर कर
घर आकर सो गया
सुबह उठा तब हिम्मत की -
और पास जाकर देखा
उन्होंने कविता को "लाईक" किया था !
वाह री ... मेरी प्यारी गुच्च-पुच्च कविता
सच ! तूने तो मुझे डरा ही दिया था !!

स्वाद ...

कुछ पतली
कुछ मोटी
कुछ पिचकी
कुछ फुलकी
कुछ सीधी
कुछ टेडी
पर होती हैं सब
स्वादिष्ट ...
सब का स्वाद
एक-सा होता है !
हुजूर, जनाब, सरकार
किसका ...
लड़कियों का ?
या रोटियों का ??
या फिर दोनों का ???

Tuesday, November 22, 2011

... तो फिर कोई गुनाह नहीं था !

कुसूर शमा का था, ही था परवाने का
जलना नसीब था, जल जाना नसीब था !!
...
गुनाह इतना था कि तेरे सांथ नहीं था
गर होता तो फिर कोई गुनाह नहीं था !
...
कोई खता, और ही कसूर था उसका
ये सच बयानी की, सजा मिली है उसको !
...
कहीं ऐंसा हो 'उदय', लोग शब्दों में ही ढूँढने लगें हमें
अब लिखने का शौक है तो, ज़रा फूंक-फूंक के लिखो !!
...
लो आज फिर आईना, मुझे देखकर बिफर गया यारो
झूठ कह देता, तो उसका क्या चला गया होता यारो !
...
क्या करोगे समझ के तुम, अब उन दिनों की बातें
हंसी मुलाकातें, बाहों में बाहें, और वो चांदनी रातें !
...
क्या गजब दस्तूर हैं नेतागिरी के 'उदय'
चोर-उचक्के भी मर्जी के मालिक हुए हैं !
...
कब तलक तुम खुदी के दिल को समझाते रहोगे यारो
खुदी से पूंछते क्यूँ नहीं, क्या प्यार इसी को कहते हैं ?
...
कब तलक खुद को खुदी से तुम छिपाओगे 'उदय'
सच ! देखना एक दिन ज़माना जान जाएगा !!
...
आज आईने में, मैं खुदी को ढूंढ रहा था 'उदय'
उफ़ ! लग तो रहा था मैं, पर कन्फर्म नहीं था !

गुणगान ...

गुणगान करना
कोई छोटा-मोटा काम नहीं होता
जनाब ! अपने आप में
एक हुनर होता है !!
ये चतुर गुण -
हर किसी के बस में नहीं होता
गर यकीं न हो तो
किसी दिन आजमा के देख लो !

क्या तुम कर पायोगे ?
गुणगान !!
वो भी किसी, ऐरे-खैरे -
या किसी नत्थू-खैरे का !
शायद नहीं !!
बहुत मुश्किल काम होता है
पर होता है, यह हुनर
काबिले तारीफ़ !
सिर्फ छोटों में नहीं -
बड़े-से-बड़ों में भी होता है !!

गुणगान करना अच्छा है
पर, गुण का गान !
लोग हैं कि आज -
गुण और अवगुण, दोनों को
सदगुण समझ -
गान में मशगूल हुए हैं
जय है, जय जयकार है !
काश ! ये हुनर
अपुन में भी समाया होता
सिर्फ, दो-चार को नहीं
सच ! सैकड़ों को पछाड़ा होता !!

Monday, November 21, 2011

कदम खुद ब खुद यहाँ चले आए ...

एक नई पुस्तक की रचना में व्यस्त ... टाईटल - 'गेट वे आफ इंडिया'
इसी पुस्तक के कुछ अंश ...
" ...

'शब्दों के जादूगर' को यह नाचीज सलाम करती है !
अरे, वाह ... खुशनसीबी हमारी जो ... जो शाम ढलने के पहले ही चाँद नजर आया है हमें !
बस, यही तो अदाएं हैं तुम्हारी कातिलाना ... बातों ही बातों में अपना बना लेते हो !
चलो, अब तुम दोबारा मिल ही गई हो तो अपना पहली मुलाक़ात का किया वादा निभा देते हैं ... इससे पहले की शाम ढल जाए खुद ही नजरें ऊपर उठाकर देख लो और जान लो नाम हमारा ... सारी कायनात में बिखरा हुआ है !

हिना अपनी नजरें ऊपर उठाकर चारों ओर निहारने लगती है ... कुछ पल को खामोश हो सोचने लगती है ... फिर अचानक बोल पड़ती है ...
अच्छा तो ये बात है ... आकाश !
खुदा ने तुम्हें यूँ ही खूबसूरती नहीं बख्शी है हिना, तुम जितनी खुबसूरत हो उतनी ही इंटेलिजेंट भी हो ... यस, आकाश ... आओ बैठो, कब तक खड़ी रहोगी !
मतलब इस धड़कते दिल ने हमें दोबारा मिलवा ही दिया ... थैंक्स, गेट वे आफ इंडिया !
हिना एक बात बताओ, आज यहाँ तुम यूँ ही घूमने आई हो या कोई और वजह भी है, आई मीन तुमने पहली मुलाक़ात में कहा था कि जब तुम कुछ छोटे-मोटे तनाव में होती हो !
नहीं, आज ऐंसी कोई बात नहीं है ... बस जी ने चाहा और कदम खुद ब खुद यहाँ चले आए !
वाह, बहुत खूब ... ज़रा जी पर, और कदमों पर बंदिशें रखी जाएं !
बंदिशें तो बहुत रखी हैं, पर आज न जाने क्यूँ ... शायद दिल और कदमों ने तुम्हें चुना हो !
संभव है ऐंसा हो ... तो चलो हाँथ मिलाया जाए दोस्ती का !

दोस्ती का हाँथ मिलाने की बात सुनते ही हिना ख्यालों में चली जाती है, तब आकाश कहता है ...
अच्छा, ये बात है हाँथ मिलाने से परहेज हो रहा है, या शायद हमारी दोस्ती से !
नहीं, ऐंसी बात नहीं है ... मैं तो यह सोच रही थी कि जब होंठ से होंठ पहली मुलाक़ात में ही मिल गए हों तब हाँथ मिलाना तो महज एक औपचारिकता से ज्यादा नहीं होगा, क्यूँ न गले लग कर दोस्ती की जाए !
कहते कहते हिना खुद ब खुद आकाश के गले लग जाती है, और दोनों एक दूसरे में कुछ पल को समा जाते हैं ...
... "

... दो-चार सही सलामत भी होते !

अभी अभी, उनका एक पैगाम आया है
भूल जाएं, ऐंसा उन्होंने कहलवाया है !
...
क्या खूब, ख़्वाब संजोये हैं किसी ने
लगता नहीं, हकीकत से जुदा होंगे !
...
आज की सब, फिर नई जिंदगी सी है
बगैर तेरे लगे, जैसे कुछ कमी सी है !
...
सच ! दर्द दिल का तड़फ के, बाहर निकल के आ गया
'खुदा' जाने, किसके जेहन में डर छिपा अपमान का !
...
सच ! बख्श तो देता तुझे, तेरे हिस्से की जमीं
पर तू ही बता, तेरे पैर कब होते जमीं पर हैं !!
...
खता उनकी भी नहीं थी, कुसूर मेरा भी नहीं था
सच ! जवानी जोश था 'उदय', दोनों समा गए !!
...
भाव मन में जो उठे, वो पिरो के रख दिए
कौन जाने किस घड़ी, वो खुश हो जाएंगे !
...
न सिर्फ मर्जी थी उनकी, वे मर्जी के मालिक भी थे
सच ! हम तो बस, जो वो कहते, करते जा रहे थे !
...
लंगड़े, लूले, काणे, तिरपट, भेंगे, कंजे, गूंगे, बहरे
काश ! इनके संग, दो-चार सही सलामत भी होते !
...
तेरी दुआओं के असर से 'खुदा' हो गया हूँ मैं
वरना एक समय तो, इंसान भी नहीं था मैं !

Sunday, November 20, 2011

यही वो धड़कता दिल है ...

एक नई पुस्तक की ओर बढ़ते कदम ... टाईटल - 'गेट वे आफ इंडिया'
इसी पुस्तक के कुछ अंश ...
" ...
मैं, करने को तो कुछ नहीं करता ... पर बहुत कुछ करता हूँ, बहुत कुछ बोले तो एक लेखक हूँ ... मेरे स्टाईल में कहूँ तो 'शब्दों का जादूगर' हूँ !
वाह ... बहुत सुन्दर ... क्या खूब अल्फाज बयां किये हैं ... सच, मुझे यकीं हो रहा है कि तुम सचमुच 'शब्दों के जादूगर' होगे ... पर जान पड़ता है कि अभी आपका 'जादू' शुरू नहीं हुआ है !
हाँ ... बिलकुल सही पहचाना आपने ... और सुनाएँ कुछ अपने बारे में !
फिर किसी दिन ... अपना नाम व पता !
क्या करोगी जानकर ... आज मैं कुछ भी नहीं हूँ और तुम एक फिल्म ऐक्ट्रेस हो ... ऐक्ट्रेस बोले तो मुंबई की जान !
हूँ ... बहुत ही ज्यादा मीठी बातें करते हो ... किसी को भी पल भर में अपना बना लेते हो !
जी नहीं, अभी तक तो अकेला हूँ ... शायद किसी को मौक़ा नहीं मिला हो, मेरी बातें सुनने का !
या यूँ समझूं कि - तुमने किसी से बातें नहीं की हों !
ये भी समझा जा सकता है ... इस शहर में किसे फुर्सत है सुनने-सुनाने की ... खैर जाने दो, आप निकल रही थीं !
हाँ, जाना तो है ... पर तुमने अपना नाम व पता नहीं बताया !
हाँ ... शायद आज आपको मिल भी न पाए ... अगर इस धड़कते दिल ने हमें दोबारा मिलवाया तो जरुर ... नहीं तो, नहीं !
तुम्हारा मतलब 'गेट वे आफ इंडिया' से है !
जी हाँ ... यही वो धड़कता दिल है ... इसने चाहा तो किसी दिन ... तब तक के लिए, एक दुआ करता हूँ - खुदा आपकी खूबसूरती को सलामत रखे !
हिना कुछ पल खड़े खड़े देखती रही, उसकी बातों में इस कदर खोई कि खोये खोये कदम उसके खुद-ब-खुद आगे बड़े और वह एक अंजान शख्स के होंठों को चूमकर चली गई ...
... "

Saturday, November 19, 2011

... उन्हें, खुद ही नुकीला कर रहा हूँ !

सच ! कल तक वो दीवानगी की हद में थे
आज न जाने क्या हुआ जो पार कर गए !
...
दिल न बोले तो भी, तू आज कुछ तो बोल दे
देख मैं कब से खडा हूँ, आज तू दर खोल दे !
...
कल तक हुए थे हम तेरे, आज सारा ज़माना हो गया
क्या हुनर पाया है तूने, जो ये जग दीवाना हो गया !
...
दुआएं दोस्तों की, दवा बन गई हैं 'उदय'
सच ! दिल अब मेरा, चहचहाने लगा है !
...
अगर चाहो तो आ जाओ, न चाहो तो न आओ
मगर ये याद रखना तुम, अभी हारा नहीं हूँ मैं !
...
तेरे पाजेब की रुनझुन मुझे हंसती-हंसाती है
जब तू नहीं होती, मुझे फिर वो सताती है !!
...
किसी न किसी दिन जज्बात मेरे, आसमां चीर देंगे
सच ! अभी तो मैं उन्हें, खुद ही नुकीला कर रहा हूँ !
...
हर एक शख्स में गिरगिट-सा हुनर होता है
मौक़ा-बे-मौक़ा खुद ही, रंग बदल लेता है !
...
सुनते हैं, जिंदगी यादों का सफ़र है 'उदय'
क्या लेके जाना है, सब यहीं छूट जाना है !
...
गर तुम कह देते मुहब्बत नहीं है हमसे
तुम्हारे न सही, किसी के हो गए होते !

Friday, November 18, 2011

छपास रोग ...

दफ्तर पहुंचते ही बड़े साहब
सुबह सुबह -
अपने पी.ए. पर भड़क गए !

खरी-खोटी सुन, पी.ए. सन्न रह गया
भड़कने का सबब जानने को
वह बड़ा बेचैन हो गया !

हुआ क्या है, कहाँ से ये तूफ़ान आया है
आया तो आया, ठीक है
पर मुझ पे ही क्यूँ ?

पूरा जिला साहब का है
किसी को भी बुला कर भड़क लेते !

पी.ए. बेचारा क्या कहता
आखिर, साहब तो साहब होते हैं !

वह दिमाग ठंडा होने का इंतज़ार करने लगा
आखिर, पी.ए. और साहब का
सुबह से शाम तक -
चोली-दामन सा सांथ जो होता है !

मौक़ा मिलते ही पी.ए.
नाक-मुंह सिकोड़ते हुए पहुंचा !

साहब देखते ही समझ गए, बोले -
तुझपे गुस्सा न होऊँ
तो तू ही बता किस पे होऊँ !

मेरा क्या कुसूर हुआ माई-बाप, जो
सुबह सुबह आप मुझपे बरस पड़े
फोन कर देते, हिंट दे देते
दो-चार अफसरों को बुला के रख लेता !

कम से कम इस नाचीज को तो बख्श देते
पी.ए. हूँ साहब, कोई ऐरा-खैरा नहीं हूँ !

साहब बोले - न्यूज पेपर्स उठा के ला
दिखा - किसी भी फ्रंट पेज पे
कहीं भी, मेरा नाम या फोटो है ?
जी, नहीं है हुजूर !

अब अन्दर देख -
क्या वहां कुछ अपना नामो-निशान है ?
जी, नहीं है हुजूर !

तो अब ये बता, तुझपे भडकूँ
या किसी और पे भडकूँ ?

जी, हुजूर, माई-बाप, समझ गया
भूल गया था, आपका मर्ज -
और दबा-दारु भी !

पर, अब आईन्दा से ...
मुझसे, ये गुस्ताखी नहीं होगी
जिले में कुछ हो या न हो
पर आपके -
छपने में कोई ढील नहीं होगी !!

उलझन ...

कल एक फ्रेंड का फोन आया, बधाई दी नवरचित पुस्तक के लिए, फिर बोला श्याम भाई किसी पब्लिशर से बात करूँ प्रकाशन के लिए, मैंने कहा हाँ कर सकते हो, उसने कहा - खर्च आयेगा ... मैंने कहा - समझा नहीं ... बोला - छपने पर जो भी खर्च आयेगा वह देना पडेगा ... मैं कुछ देर शांत रहा फिर धीरे से बोला - यार कुछ दिन रुक जाओ, फिर बताता हूँ ... काफी देर सोचता-विचारता रहा कुछ समझ से परे लग रहा था फिर सोचा दिमाग में उलझन रखने से बेहतर है अन्य मित्रों से समझ व जान लिया जाए, सांथ ही सांथ सामान्य ज्ञान भी बढ़ जाएगा ...

... क्या पुस्तक प्रकाशन के लिए लेखक को छपने का खर्च वहन करना पड़ता है ?

हवस ...

हवस की आग से
चाहे जैसे भी हो, तुम
बाहर निकल आओ
कहीं ऐंसा न हो
कि -
खुद ही -
जल के ख़ाक हो जाओ !

विश्व कप क्रिकेट - १९९६ ...

विश्व कप क्रिकेट - १९९६ ... भारत-श्रीलंका सेमी फायनल मैच ... इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि विनोद काम्बली सही कह रहा है, ... अजहरुद्दीन व अजय जडेजा का "शून्य" पर आऊट हो जाना इस बात का प्रमाण है की मैच "फिक्स" था क्योंकि इन दोनों खिलाड़ियों पर मैच फिक्सिंग के आरोप पूर्व में प्रमाणित हो चुके हैं ...

Wednesday, November 16, 2011

... हालात से पार खुद को पाया है !

जिस घड़ी नजर ठहरेगी, जमाने की हम पर
मान लेंगे, वही सूरत, मुकम्मल है यारो !
...
यह न पूंछो की बहस का मुद्दा क्या है
कुछ नहीं भी है, तो भी बहस जारी है !
...
सच ! जब से मिलना दुश्वार हुआ है यारों से
तब से यारों ने भी, मुझसे नाता तोड़ लिया !
...
दोस्तों ने एहसान तले दबाने का मन बनाया था 'उदय'
वो तो अच्छा हुआ, जो तुम समय पर आ गए !!
...
ज़रा देखो, उठकर आईने में खुद को
न मुस्कुरा दो, तो जो चाहे कह लो !
...
हाल-ए-दिल, हमारा तो 'सांई' जाने है
अब क्या न कहें, क्या छिपाएं उससे !
...
सच ! मेरे यार मुझे, मैकदे पे ढूंढ रहे थे 'उदय'
कहाँ है खबर उनको, कि अब मैं पीता नहीं हूँ !
...
'सांई' ही जाने, क्यूँ उसने चुन लिया है मुझको
आज के दौर में भी, मैं उतना सियाना नहीं हूँ !
...
सच ! तंग हालात में भी, हम कब ठहरे हैं 'उदय'
कभी खुद से, कभी हालात से पार खुद को पाया है !
...
आज हर उस शख्स के हाँथ में, मैंने हैं पत्थर देखे
जिनको देखा था कभी, हाँथ फैलाए हुए !

क्या प्यार इसी को कहते हैं ?

"क्या प्यार इसी को कहते हैं ?"
पुस्तक कम्पलीट हुई मित्रों ... दो-तीन दिन में करेक्शन का काम पूरा करना है ... फिर कोशिश करेंगे शायद अपने जैसे नौसिखिये लेखकों को भी पब्लिशर मिल जाए ...
गर नहीं मिला तब ... अपुन के पास "फेसबुक व ब्लॉग रूपी इंटरनेशनल मंच" तो उपलब्ध ही हैं ...

देखेंगे, पर एक कोशिश जरुर करेंगे प्रकाशन के लिए / यदि आपके पास कोई सुझाव हो प्रकाशन सम्बन्धी तो अवश्य दें ...
शाम-रात से पुन: अपने पुराने तेवरों पर आ जायेंगे ... तब तक के लिए पुस्तक के अंशों की अंतिम किश्त ...

"... यार नेहा इस समस्या का समाधान तो सेक्सुअल रिलेशन आई मीन सेक्सुअल इंटरकोर्स पर जाकर ख़त्म होता है, और जहां तक अपुन का दिमाग दौड़ रहा है इस "बोबी डार्लिंग" जैसी समस्या का समाधान कोई और हो भी नहीं सकता ... पर सेक्सुअल इंटरकोर्स भी अपने आप में एक समस्या तो है ही भले छोटी ही सही ... लगता है कि दो के झगड़े में तीसरे का भला होना तय है, आई मीन प्रेम को "सेक्स" का मजा लेने का सुनहरा मौक़ा, वो भी बिना मेहनत के मिलने वाला है ... चलो ठीक है, क्या फर्क पड़ता है ... पर सवाल ये है कि किसके सांथ ? ..."

Tuesday, November 15, 2011

तूफानी रात ...

नव रचना की ओर अग्रसर पुस्तक - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के कुछ अंश -
" ...

तूफानी रात तो जैसे तैसे गुजर गई, पर दोनों ... नेहा और प्रेम अंजान रहे कि क्या हुआ, क्यों रात तूफ़ान की तरह करवट बदलते रही ... एक तरफ नेहा तो दूसरी तरफ प्रेम ... दोनों के दोनों सुबह होने पर भी कुछ बेचैनी महसूस कर रहे थे ... दरअसल बेचैनी का सबब कुछ और नहीं था उन दोनों के अन्दर समाया हुआ एक दूसरे के प्रति प्यार था जिससे शायद वे दोनों ही अंजान थे ... नेहा अपने दोस्त प्रेम को अपनी सहेली के सामने नीचा न देखना पड़े शायद इसलिए वह उसे "किस" करने की ट्रेनिंग दे देती है ... वह इस बात से अंजान रहती है कि एक दोस्त की भी कुछ मर्यादाएं होती हैं जिसे वह दोस्त के रूप में पार नहीं कर सकती ... किन्तु वह खुद यह नहीं जानती है कि वह खुद भी प्रेम से प्यार करती है शायद प्यार होने की अंदरुनी ताकत ही उसे प्रेम को "किस" करना सिखाने को मजबूर कर देती है ... ठीक इसी प्रकार जहां प्रेम, जो निधी के छुअन मात्र से झनझनाने लगता था वह नेहा के एक बार कहने व समझाने पर नमूने के रूप में हिम्मत पूर्वक नेहा को "किस" कर लेता है ... यह दोनों के बीच बचपन की दोस्ती के दौरान अन्दर ही अन्दर पनप रहे प्यार का ही नतीजा है जो दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गए तथा "किस" लेने व देने में सफल भी रहे ..."

लेखन जारी है पूर्णता की ओर ...

Monday, November 14, 2011

तुझे ही "किस" करनी चाहिए ...

अपुन भी पुस्तक लिख रहा हूँ पुस्तक का टाइटल है - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के कुछ अंश -

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नेहा - आजा यार, क्यूँ टेंशन ले रहा है देखते हैं जो होगा देखा जाएगा, वैसे भी "किस" लेने या देने की ही तो बात है तू काय को टेंशन ले रहा है ... अगर टेंशन किसी को लेना चाहिए तो निधी को लेना चाहिए, क्योंकि वह एक लड़की है ... और तू है कि तू टेंशन में है और वह तुझे देख देख के मजे ले रही है ... एक काम कर, तू मन बना ले, किसी पिक्चर का "किस" सीन याद कर, और याद करते करते "किस" ले लेना या दे देना !
प्रेम - नेहा तू भी यार पिक्चर और हकीकत में जमीं आसमान का अंतर होता है, और तू तो जानती है किसी और लड़की के छूने मात्र से मेरा क्या हाल होता है ... क्या किया जाए, कुछ तो आज तय करना ही पडेगा !
नेहा - मैं एक दोस्त होने के नाते तुझे यह ही सलाह दे सकती हूँ कि तुझे डरने की जरुरत नहीं है, तू ये डिसाइड कर ले कि - तू "किस" देगा या लेगा, फिर मैं तुझे कुछ हिंट देती हूँ, हालांकि मुझे भी कोई प्रेक्टिकल अनुभव नहीं है यह तू भी जानता है !
प्रेम - अच्छा ये बता मुझे क्या करना चाहिए ?
नेहा - मेरी तो सलाह यह है कि तुझे ही "किस" करनी चाहिए !
प्रेम - अब जैसा तू बोलती है वैसा मान लेता हूँ ... वैसे भी मैं लड़का हूँ इसलिए मुझे ही "किस" करना चाहिए ... मैं मन बना रहा हूँ और तू मुझे सोच समझ कर ऐंसे हिंट दे ताकि निधी के सामने मुझे शर्मिन्दा न होना पड़े !
नेहा - ये हुई न कोई बात ... चल एक काम कर, थोड़ी देर के लिए तू सोच कि मैं निधी हूँ और तेरे सामने खड़ी हूँ बता कैसे "किस" करेगा !
प्रेम नाक-मुंह सिकोड़ते हुए हिम्मत कर नेहा को निधी समझ कर आगे बढ़ता है किन्तु उसके सामने पहुंचते ही उसके हाँथ कांपने लगते हैं ...
नेहा - अरे बुद्धू, तू ऐंसे ही डरेगा तो कैसे "किस" करेगा ... हिम्मत कर, और बिना डरे आके ले ले "किस" !

प्रेम एक बार फिर हिम्मत कर नेहा को निधी समझ "किस" करने की कोशिश करता है किन्तु फिर से वह सहम के रह जाता है, इस बार नेहा को गुस्सा आता है और ...
... "

माल ... खरीद लो ...

अपुन भी पुस्तक लिख रहा हूँ पुस्तक का टाइटल है - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के कुछ अंश -

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प्रेम - बस अभी अभी आया हूँ लगभग पंद्रह मिनट हुए होंगे ... चूंकि तुम गहरी नींद में थी इसलिए तुम्हें डिस्टर्व करना उचित नहीं समझा और यहाँ कंप्यूटर चालू कर फेसबुक पर कुछ नया पढ़ने बैठ गया !
नेहा - वाह, क्या बात है आजकल तू फेसबुक पर भी ... क्या माजरा है यार, कुछ बताता क्यूँ नहीं ... चल छोड़ ये बता क्या मिला तुझे फेसबुक पर !
प्रेम - बस अभी अभी एक युवा शायर की दो पंक्तियाँ पढ़ रहा था ... सुन तू भी क्या लिखा है शायर ने -
"सच ! हमने यूँ ही कह दिया, क्या माल है
वो पलट के आ गए, कहने लगे खरीद लो !"
यार नेहा ये बता, क्या है इसका मतलब, लाइनें तो बहुत ही इंटरेस्टिंग लग रही हैं किन्तु कुछ समझ से परे हैं !
नेहा - यार रुक मैं फ्रेस होके आती हूँ, चाय पिएगा या नहीं ... अब हाँ या न क्या, मेरे सांथ पी लेना, जा शंभू काका को बोल चाय के लिए तब तक मैं बाथरूम से आती हूँ !

लगभग पांच मिनट में नेहा फ्रेस होकर बाथरूम से निकली तब तक चाय भी आ गई थी, चाय पीते पीते ...

नेहा - दिखा कहाँ लिखी हैं लाइनें, मैं भी तो देखूं ज़रा ... वाह क्या बात है -
"सच ! हमने यूँ ही कह दिया, क्या माल है
वो पलट के आ गए, कहने लगे खरीद लो !"
यार प्रेम ये तो बहुत ही गंभीर टाईप की लाईने, आई मीन शेर-शायरी लग रही हैं, ये अपुन लोगों के समझ से सचमुच परे है, पर हैं इंटरेस्टिंग ... माल ... खरीद लो ... चल छोड़ जाने दे, किसी दिन दिमाग खपायेंगे, आज सुबह सुबह मूड नहीं है और वैसे भी आज सन्डे है कौन मगज मारी करे ... बता क्या प्रोग्राम है आज !
... "

Sunday, November 13, 2011

दिल का धड़कना ...

अपुन भी पुस्तक लिख रहा हूँ पुस्तक का टाइटल है - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के कुछ अंश -

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रात में बिस्तर पर पड़े पड़े नेहा मन में सोचती है कि - क्या अजब इत्तफाक है कि एक तरफ प्रेम का दिल निधी की टच से झनझना रहा है और वहीं दूसरी ओर उसे खुद पता नहीं है कि ऐंसा क्यों हो रहा है ... और तो और निधी भी अंजान है, कल इस मसले पर गहन सोच-विचार करना पडेगा कि ऐंसा क्यों हो रहा है, कहीं ऐंसा न हो निधी और प्रेम दोनों अंजान हों तथा दोनों एक-दूसरे को लम्बे समय से पसंद कर रहे हों ... पर इतना तो तय है कि - दिल का धड़कना ... किसी के बस में नहीं होता, जब वह धड़कता है तो धड़कते चलता है ... खुशी की बात तो ये है कि अपुन का बुद्धू दोस्त प्रेम ... चलो ठीक है यदि उसे प्यार हो भी रहा है तो ये खुशी की बात है, पर निधी ... निधी को क्यूँ महसूस नहीं हो रहा, कहीं ऐंसा तो नहीं वह कुछ छिपा रही है ... खैर देखते हैं, आगे क्या होता है ! ... कब तक कोई बात दिल में छिपी रहेगी, आज नहीं तो कल उसे बाहर तो आना ही है ... और रही बात प्यार-व्यार की तो, कौन-सा अपुन भी इस मामले में पीएचडी की डिग्री लेके बैठा है, जैसे वे दोनों नौसिखिये, वैसे ही अपुन भी ... पर दिल का धड़कना, झनझना जाना ... कुछ अद्भुत सा है ... क्या प्यार इसी को कहते हैं ? ... अब इस सवाल का जवाब तो वक्त ही देगा ... देखते हैं कल क्या कहानी होती है ... सो जाओ नेहा ... गुड नाईट !
... "

कहीं हार्ट फ़ैल न हो जाए ...

अपुन भी पुस्तक लिखना शुरू किया हूँ पुस्तक का टाइटल है - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के कुछ अंश -
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निधी - उस टाईप बोले तो ... ये टाईप क्या होता है यार !
नेहा - तू भी, अब क्या तुझे टाईप भी समझाना पडेगा !
निधी - नहीं यार, मैं तो सोच रही थी कि वो तेरा उस टाईप का ही फ्रेंड है !
नेहा - चल छोड़ मस्ती मत कर, जितना बोलती हूँ उतना कर, बाद में समझाऊंगी क्यों बोल रही हूँ ऐंसा करने के लिए !
निधी - ठीक है, जैसा बोलती है कर देती हूँ मेरा क्या जाता है ... टकराने से कौन-सा वो मेरा कुछ ले जाएगा, इशारा कर उसे आने के लिए मैं आज टकरा के उसकी बैंड बजा देती हूँ !

बर्थ डे पार्टी की भीड़ में नेहा का इशारा पाकर प्रेम उसकी ओर आने लगता है इसी बीच निधी अंजान बनते हुए उसके कंधे से कंधा टकराते हुए आगे निकल जाती है ... यह देख नेहा मन ही मन मुस्कुराने लगती है, इसी बीच प्रेम उसके सामने पहुँच जाता है ...

प्रेम - नेहा, चल यार चल चलते हैं अब यहाँ एक मिनट भी नहीं रुकेंगे !
नेहा - क्यों, क्या हो गया, अभी तो पार्टी शुरू हुई है नाचना-गाना, धूम-धडाका तो अभी बाकी है !
प्रेम - यार यहाँ मेरी जान निकल रही है और तुझे नाचने-गाने की पडी है, देख मेरे दिल की धड़कन कितना तेज धडाधडा रही है, यहाँ रुका रहा तो कहीं मेरी जान ही न निकल जाए !
नेहा - तू भी यार, फर्स्ट ईयर में पहुँच गया है और आज भी वही बच्चों जैसी बातें कर रहा है, पार्टी में आए हैं नाच-गाना तो होगा ही, एक काम कर इतनी सारी लड़कियाँ हैं किसी एक को पसंद कर, मैं उससे अभी तेरी दोस्ती करा देती हूँ !
प्रेम - नेहा तू समझती क्यूँ नहीं है यार, अभी अभी निधी मुझसे अनजाने में टकरा गई है उसी से मेरी दम फूल रही है ... छूकर देख मेरे दिल को, कहीं हार्ट फ़ैल न हो जाए ... और तू कहती है कि किसी लड़की से दोस्ती करा देती हूँ, क्या मेरी जान लेकर ही तू दम लेगी !
नेहा - अच्छा चल निधी से ही तेरी दोस्ती करा देती हूँ !
प्रेम - मैं तेरे हाँथ जोड़ता हूँ मेरी माँ ... मुझे न तो निधी में इंटरेस्ट है, और न ही किसी दूसरी लड़की में ... चल घर निकल लेते हैं !
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Saturday, November 12, 2011

झनझना रहा होता ...

अपुन भी पुस्तक लिखना शुरू कर दिया हूँ पुस्तक का टाइटल है - "क्या प्यार इसी को कहते हैं ?" ... इसी पुस्तक के अंश -

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प्रेम - नेहा, आज अजीब सी बेचैनी हो रही है समझ में नहीं आ रहा है कि - ऐसा क्यूँ हो रहा है !
नेहा - क्या हुआ, खुल के बता, क्या बात है !
प्रेम - क्या बात है, यही तो समझ में नहीं आ रही है !
नेहा - अरे यार, कुछ तो बता क्या बात हुई है, आई मीन क्या बेचैनी हो रही है !
प्रेम - यार दोपहर में तुम्हारी सहेली निधी, आई मीन केन्टीन में चाय पीते समय उसका हाँथ मेरे हाँथ से टकरा गया था, तब से लेकर अब तक, लगभग ढाई-तीन घंटे हो गए हैं, हाँथ का वह हिस्सा जहां उसका हाँथ टकराया था वह झनझना रहा है, और तो और मेरे दिल की धड़कनें भी तेजी से धड़क रही हैं, क्या हुआ है समझ से परे है !
नेहा - अरे बुद्धु, तू भी ... इतनी छोटी-सी बात पे झनझना रहा है, छोड़ उसे, कुछ भी नहीं है !
प्रेम - नहीं यार, तब से वही सीन बार बार याद आ रहा है, और तो और मेरे दिल को धड़का भी रहा है !
नेहा - चल फोन रख, आधा घंटे में मैं आ रही हूँ तेरे घर, तैयार रहना, आज निधी का "बर्थ डे" है उसके घर चलना है उसने तुझे भी इनवाईट किया है !

आधा घंटे के बाद निधी के पहुंचने पर ...
निधी - चल प्रेम चल चलते हैं टाईम हो गया है, मैं रस्ते में सोच रही थी कि - जब तेरा हाँथ निधी के हाँथ से टच हो जाने पर अभी तक झनझना रहा है, सोच अगर वो तेरे से लिपट गई होती तो तेरा क्या हाल होता ... अभी तू पूरा का पूरा झनझना रहा होता, आई मीन बाईव्रेट मोड में चला गया होता !
... "

वीक एंड स्पेशल ... हॉट सीट पर प्रेमी !!

प्रेमिका ने -
सामने हॉट सीट पर बैठे
अपने प्रेमी के सामने अंतिम प्रश्न रखा
मुझसे शादी करने के पीछे तुम्हारी लालसा क्या है ?

आप्शन -
- तुम मुझसे सच्चे दिल से प्यार करते हो !
बी - तुम मेरी दौलत से प्यार करते हो !
सी - तुम मेरे सांथ सोने की जिद में शादी करना चाहते हो !
डी - तुम्हारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है !

सवाल सुनकर-पढ़कर, प्रेमी सन्न रह गया -
सामने रखा एक गिलास पानी उठाकर पी गया !

प्रेमिका ने कहा -
तुम चाहो तो आख़िरी लाइफ लाइन "डबल डिप" ...
"डबल डिप" की शर्त तो तुम्हें मालुम ही है कि -
यदि गलत हुए तो -
हमेशा-हमेशा के लिए हमारा सांथ छूट जाएगा !
जीत गए तो फिर कोई बात ही नहीं है !!

प्रेमी ने गहरी सांस ली, और "डबल डिप" का आप्शन चुना
प्रेमिका ने कहा - अब तुम गेम क्विट नहीं कर सकते
बताइये - आपका पहला जवाब क्या है ?
प्रेमी ने कहा - आप्शन -
कंप्यूटर जी - यह गलत जवाब है आपका !

प्रेमी के माथे पर पसीना टपका -
और उठाकर दूसरा गिलास पानी भी गटका !!

प्रेमिका ने कहा - सोचिये और सोच कर जवाब दीजिये
आपका दूसरा आप्शन क्या है ?

प्रेमी ने खुद को गंभीर संकट में घिरा पाया
पर, जवाब देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नजर नहीं आया
आँख बंद की, गहरी सांस ली, फिर आँख खोलकर
जवाब दिया - आप्शन - डी
कंप्यूटर जी - "आप्शन - डी" पर ताला लगाया जाए !

कंप्यूटर जी ने ब्रेक के बाद जवाब दिया -
यह भी - गलत जवाब है आपका !

जवाब सुनते ही प्रेमी पसीने से तर-बतर हो गया
आँखों के सामने घुप्प अंधेरा छा गया !
प्रेमिका भी जवाब सुनकर अचंभित हुई
और कंप्यूटर जी से सही जवाब माँगा -
सही जवाब - आप्शन - सी ...

प्रेमी और प्रेमिका दोनों सन्न रह गए
और खुद--खुद दोनों, माथा पकड़ के रह गए !!

साहित्य की दुनिया ...

सुनते हैं, साहित्यिक लोग
जीते जी -
उतने बड़े नहीं होते हैं
जितने बड़े -
मरने के बाद
खुद-ब-खुद हो जाते हैं !

मरने के बाद -
कोई कैसे बड़ा हो जाता है
यह सवाल मेरे जेहन में -
कूद रहा है
हिलोरें मार रहा है
गोते लगा रहा है
हुत-तू-तू कर रहा है !

काश ! मैं समझ पाता, जान पाता
कि -
मरने के बाद
ऐंसा क्या हो जाता है
कि -
साहित्यकार
खुद-ब-खुद बड़ा हो जाता है !!

Friday, November 11, 2011

साहित्य के सूरज ...

ये कैसी दुनिया है 'उदय'
जहां डूबते सूरज -
खुद ही सुनहरे हो रहे हैं !

ऊगते सूरज -
और चिलचिलाती धूप से
मूँद के आँख -
डर के किनारे हो रहे हैं !

आग, ताप, तेज, वेग
और ज्वलनशीलता
डूबता सूरज कहाँ से दे हमें !

जो दे सके है, उसी से
पीठ कर -
ओट में खड़े ये हो रहे हैं !!

सवाल ...

सवाल यह नहीं है
कि -
क्या मिला है मुझे, तुमसे !
सवाल यह है
कि -
मैंने, क्या दिया है तुम्हें ?

सवाल -
उत्तर का भी नहीं है
सवाल है -
सोचने
समझने
महसूस करने
और मनन करने का !

यदि आज भी हम, निरुत्तर रहे
तो फिर हम
खोये रहेंगे, उलझे रहेंगे
इन्हीं
छोटे-मोटे सवालों में
कि -
क्या दिया तुमने मुझे
और क्या दिया मैंने तुम्हें !!

प्रेम ...

जी ने, तो न चाहा था कभी
आज खुद-ब-खुद सवेरा हो गया
भोर की किरणों में -
मेरा वसेरा हो गया
रात तो सोये थे समय पर ही 'उदय'
नींद का खुलना बहाना हो गया
प्रेम होना था सुबह से हमें
नींद खुलते ही हमें वो हो गया !!

कहाँ हूँ, कहाँ नहीं हूँ मैं ...

कुछ हौसले
कुछ ख्याल
कुछ मंजिलें
टटोल के देख ज़रा
कहाँ हूँ, कहाँ नहीं हूँ मैं !
आज, इन हालात में
गर तुम
आके मिल लोगे मुझसे
तो तुम्हारा
क्या चला जाएगा ?
आखिर
जो कुछ भी है
तुम्हारे पास
सब
मेरा दिया हुआ ही तो है !!

बटुआ ... 'सांई महिमा' अपरम्पार है !

'सांई दरवार' में बिखरे पड़े कागज़ के तुकडे, फूल के पत्ते, पंखुड़ियां, अगरबत्ती, इत्यादि के रेपर को सेवा भाव से समेटते समय अनिल को वहीं पडा हुआ एक 'बटुआ' मिला, 'बटुआ' को देखकर अनिल अचंभित हुआ, उसने उसे जेब में रख लिया तथा परिसर की सफाई में लग गया, फैले समस्त कचड़े को उठा उठा कर उसने ले जाकर डस्टबिन में डाल दिया !

फुर्सत होते ही उसने जेब से 'बटुआ' निकाल खोलकर देखा उसमें एक-एक हजार के ढेर सारे नोटों की भरमार थी, सांथ ही कुछ छोटे छोटे नोटों के सांथ कुछ महत्वपूर्ण कार्ड व कागज़ भी रखे थे उन्हें देखते देखते - उसकी नजर एक पर्ची पर गई जिसमें पता लिखा था तथा यह भी लिखा था कि यदि जाने-अनजाने किसी को यह पर्श मिले तो कृपया नीचे लिखे पते पर संपर्क करे !

लिखे पते को पढ़कर अनिल यह तो समझ गया था कि यह 'बटुआ' उन्हीं सज्जन का है किन्तु दिमाग में उथल-पुथल इस बात को लेकर हुई कि वह पता वहां से कोसो दूर था और उसके पास वहां जाने के लिए जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी किन्तु उसने 'सांई बाबा' के चरणों में सिर झुका कर आशीर्वाद लिया तथा 'बटुआ' में रखे रुपयों की मदद से टिकिट ले ले कर वह उस सज्जन के पास पहुँच गया !

उक्त सज्जन को 'बटुआ' सौंपते हुए अनिल ने सारा किस्सा सुनाया, किस्सा सुनकर महाशय की आँखे फटी-की-फटी रह गईं, अनिल की उम्र महज सत्रह साल थी जिसकी नेक-नियती ने महाशय को अपना भक्त बना दिया ... अजब संयोग देखिये अनिल अनाथ था तथा 'सांई मंदिर' में ही सेवा कर जीवन यापन कर रहा था और दूसरी ओर जिनका 'बटुआ' उसे मिला, वह मुंबई के जाने-मानें हीरों के व्यापारी थे जो बेऔलाद थे !

कहने को तो महज एक 'बटुआ' था किन्तु किसी चमत्कार से कम नहीं था उसमें रखे नोट दोनों के लिए महत्व नहीं रखते थे क्योंकि सेठ जी तो अपने आप में सेठ थे तथा अनिल, वह तो 'सांई भक्ति' में लीन था उसे भी उन रुपयों की कोई दरकार नहीं थी ... किन्तु इस संयोग से अरवपति सेठ को बेटा और एक अनाथ को बाप मिल गया तथा इसे 'सांई महिमा' समझ दोनों एक-दूसरे की सेवा में लग गए !!

Thursday, November 10, 2011

एक सिक्के के दो पहलु : जायज-नाजायज !

एक पहलु ...
---------
जिनसे मुझे कुछ, या यूँ कहूँ
कोई उम्मीद होती है
तब
मैं खुद-ब-खुद -
वहां पहुँच जाता हूँ !

वहां पहुच कर -
मैं यह भी नहीं देखता
कि -
मेरा आना -
जायज है या नहीं !

जहां उम्मीदें अपनी हों
वहां क्या जायज -
और क्या नाजायज !!

दूसरा पहलु ...
-----------
जिनसे मुझे, या यूँ कहूँ
कुछ उम्मीदें हैं
उनके पास मुझे, खुद-ब-खुद
पहुँच जाना चाहिए !

वहां पहुच कर
मुझे यह भी नहीं देखना चाहिए
कि -
मेरा आना, जायज है या नहीं !
जहां, उम्मीदें अपनी हों
वहां -
क्या जायज, क्या नाजायज ?

पर, मेरे ख्याल
मेरे ही जीवन में -
हकीकत रूप नहीं ले पाते हैं
क्यूँ, क्योंकि -
मैं, खुद के सामने, कभी भी
नाजायज को, जायज नहीं ठहरा पाता हूँ !!

जीवन धारा ...

अब तो
जिस दिन तुम, कह दोगे
खुद को मेरा !
तब ही हम
खुद को अपना कह पाएंगे !
वरना
इस बहती जीवन धारा में
हम खुद को
संग संग तेरे
पीछे पीछे बहता पाएंगे !!

ग़मों का हमसफ़र ...

न जाने क्यूं
किसी ने खुद को
ग़मों का -
हमसफ़र बना रक्खा है 'उदय'
कोई समझाए उसे
जिंदगी का दौर
ग़मों के -
इस पार भी है
ग़मों के उस पार भी है !!

... कब तक अंजान रखेगा खुद को !!

सच ! कल और आज में, कोई फर्क नहीं है 'उदय'
ये दिल की बातें हैं, तुम जानें हो या हम जानें हैं !
...
अहम भी खुबसूरती को बा-अदब सलाम करता है
जाने कौन है वो शख्स, जो तुम पे नहीं मरता !
...
आज हर उस मुर्दे में, मुझे जान नजर आई है
कल तक जो ज़िंदा थे, जीते जी मुर्दा बन कर !
...
सच ! तुमसे मिलकर, मिजाज बदल गए मेरे
शायद यह वजह होगी, मौसम बदलने की !!
...
सुना है कुछ ख़्वाब, खुली आँखों में ही आते हैं 'उदय'
सच ! चलो अच्छा हुआ, जो नींद से झगड़ा हुआ है !
...
उम्मीदों के चिराग मत बुझने देना 'उदय'
'सांई' जाने, कब वो जगमगा जाएं !!
...
नेक नियती हो तो परम्पराएं बदल जाएं
सच ! हों, तो फिर क्या कहने !!
...
लोगों ने तो सरकार को बपौती समझ रक्खा है
उफ़ ! फिर भी, ये तो फेसबुक है !!
...
प्यार के फूलों को खिलने दो, खुशबू बिखरने दो
देखें, माशूक कब तक अंजान रखेगा खुद को !!
...
कुछ राज हैं छिपे दिल में, धड़कनों को संभालो तुम
रोता हुआ दिल है तो क्या, चेहरे को संभालो तुम !!
...
आशिकी में, हवा के झौंके भी, झटके दे देते हैं 'उदय'
अब कर ही ली है मुहब्बत, तो ज़रा संभल के चलो !
...
सच ! किसी न किसी दिन, मुझे भी 'रब' हो जाना था
आज खौफ के मंजर में, उसी ने चुन लिया मुझको !!
...
तेरा जी चाहे, उतने इल्जाम लगा दे मुझ पे
सच ! पर 'रब' जाने है, मुजरिम नहीं हूँ मैं !

गुरुनानक जयंती की बधाई व शुभकामनाएं ...

गुरुनानक जयंती की बधाई व शुभकामनाएं ...
...
तेरी चौखट पे, खुद ब खुद सिर झुक गया है
सच ! अब तू ही बता, क्या तेरा ईशारा है !!

Wednesday, November 9, 2011

खामोश मुहब्बत ...

कालेज में बीए अंतिम वर्ष के बाद विदाई समारोह के दौरान ...

निधी - राम हम तीन वर्ष एक सांथ पढ़कर निकल रहे हैं, आज कालेज का अंतिम दिन है शायद कल के बाद हमारी मुलाक़ात हो, या ना भी हो, यह हम नहीं जानते हैं !
राम - हाँ, सच कहा तुमने निधी ... पर शायद मुलाक़ात संभव भी हो क्योंकि दुनिया गोल है !

निधी - राम हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त रहे हैं ... शायद दोस्ती के दौरान मुझे तुम ... मुझे तुमसे प्यार भी हो गया है किन्तु मैंने कभी तुमसे कहा नहीं, आज हिम्मत कर कह रही हूँ यदि तुम्हारी हाँ हो तो हम एक सांथ जीवन भी गुजार सकते हैं !
राम - हाँ एक-दो बार मुझे एहसास हुआ है कि तुम मुझे चाहने लगी हो किन्तु ... किन्तु मैं अनदेखी करता रहा ... वजह भी तुम जानती हो, मेरे लिए पढ़ाई कितनी जरुरी थी !

निधी - पर अब पढ़ाई पूरी हो चुकी है, मेरी दिली इच्छा है कि मैं जीवन भर के लिए तुम्हारी हो जाऊं !
राम - मैं जानता हूँ मुझे तुमसे अच्छी लड़की नहीं मिल सकती, और शायद सारे जहां में कोई दूसरी लड़की तुम जैसी होगी भी नहीं ... पर शादी करना मुमकिन नहीं है !

निधी - हाँ, मैं जानती हूँ तुम्हारी पारिवारिक परिस्थितियों को तथा तुम्हारे दायित्वों को ... फिर भी अगर तुम चाहो तो हम दोनों सांथ मिलकर ...
राम - निधी, शायद मुमकिन नहीं है !

निधी - ठीक है, मैं समझती हूँ, ... मेरी शादी कब होगी यह तो मैं नहीं जानती, पर ... शादी के फेरे पड़ने के पहले तक मुझे तुम्हारा इंतज़ार रहेगा ... जैसे ही हालात बदलें तुम निसंकोच चले आना !
राम - 'रब' जानता है क्या होगा, क्या नहीं ... फिलहाल तो मैं कुछ नहीं कह सकता !

निधी - राम, क्या हम विदा होने के पहले एक बार गले लग सकते हैं ?
राम - आज नहीं, 'रब' ने चाहा तो हम जरुर गले लगेंगे ...
( दोनों एक-दूसरे को कुछ देर देखते रहे ... तथा अगले पल ... दोनों एक-दूसरे को नम आँखों से शुभकामनाएं देते हुए विदा हो गए ... )

इंटरव्यू ...

गाँव का युवक - राम कड़ी मेहनत लगन से पीएससी की लिखित परीक्षा पास कर इंटरव्यू में पहुंचा ...

अधिकारी - ( राम की फ़ाइल देखते हुए ) पढ़ाई के अलावा आपका और क्या क्या शौक है ?
राम - सर, क्रिकेट खेलना !

अधिकारी - अच्छा, बहुत अच्छा, ये बताओ वर्त्तमान में क्रिकेट कितने फारमेट में खेला जा रहा है ?
राम - सर, टेस्ट, वंडे तथा ट्वेंटी-ट्वेंटी !

अधिकारी - वंडे में किस खिलाड़ी ने एक ओवर में : छक्के का रिकार्ड बनाया है ?
राम - सर, नहीं जानता !

अधिकारी - गुड, ट्वेंटी-ट्वेंटी में किस खिलाड़ी के नाम एक ओवर में : छक्के मारने का रिकार्ड दर्ज है ?
राम - सर, नहीं जानता !

अधिकारी - ओह हो, अच्छा ठीक है आप जा सकते हो !
राम - सर, क्षमा सहित कुछ बोलना चाहता हूँ !

अधिकारी - हाँ, बताएं क्या कहना चाहते हैं !
राम - ( राम अपने हाँथ में रखी फ़ाइल से दो सर्टिफिकेट निकाल कर देते हुए ) सर, मैं गाँव के एक साधारण गरीब परिवार का लड़का हूँ, मेरे घर पर तो टेलीविजन है और ही समाचार पत्र-पत्रिका जैसी सुविधा वहन करने की क्षमता है इसलिए आपके दोनों सवालों के जवाब मेरे लिए कठिन थे ... किन्तु ये जो दो सर्टिफिकेट अभी आपको दिए हैं वह मेरे हैं जो पिछले दो माह के दौरान आयोजित संभाग स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के दौरान मुझे प्राप्त हुए हैं ... पहला सर्टिफिकेट - ट्वेंटी-ट्वेंटी फारमेट में मेरे द्वारा मारे गए एक ओवर में : छक्के के परिणाम स्वरूप मिले "मैन आफ मैच" पुरूस्कार का है ... तथा दूसरा सर्टिफिकेट - वंडे फारमेट में एक ही ओवर में मेरे द्वारा मारे गए : छक्कों के परिणाम स्वरूप मिले "मैन आफ मैच" पुरूस्कार का है !

अधिकारी - ( अपनी चेयर से उठकर राम से हाँथ मिलाते हुए ) वेल, वेलडन ... यू आर सिलेक्टेड राम, मुझे तुम पर गर्व है, बधाई शुभकामनाएं !!

छुअन ...

एक दिन
छूने से उसके
दिल ने मेरे
अलग राग ही छेड़ दिया !
उस दिन से रहा नहीं -
ये दिल अपना
तब से
हमने खुद को
अपना कहना छोड़ दिया !!

Tuesday, November 8, 2011

पुलिस कप्तान और जगहंसाई का शौक !

एक बड़े अफसर हैं, बहुत बड़े !
प्रदेश के एक विभाग के जिम्मेदार अफसर हैं
हाँ भई, कप्तान हैं
वो भी पुलिस जैसे महत्वपूर्ण विभाग के
जी हाँ
पुलिस विभाग के ही, जिले के कप्तान हैं !

पर, सुनते हैं उन्हें जगहंसाई -
जी हाँ, जगहंसाई की आदत है
समय समय पर
वे कुछ न कुछ ऐंसे निर्णय -
लेते हैं, ले ही लेते हैं
जिससे, उनकी जगहंसाई, खुद-ब-खुद हो जाती है !

अब क्या कहें, क्या न कहें, एक बार -
उन्होंने जगहंसाई की एक नई मिशाल पेश कर दी
आश्चर्यजनक, किन्तु सत्य ...
हुआ दरअसल यह कि -
उनके प्रदेश में, सिर्फ उनके प्रदेश में ही नहीं
वरन देश के चार-छ: प्रदेशों में भी
विधानसभा चुनावों की तैयारी, जोर-शोर से चल रही थी
बस चुनाव तिथि की घोषणा होनी शेष थी
अब शेष बोले तो, चुनाव आयोग की तरफ से हरी झंडी !

रोज, हर रोज, टीव्ही चैनल्स, न्यूज पेपर्स में
चर्चा-परिचर्चा जोरों पे थी
और लो हो गई घोषित - चुनाव की डेट
चुनाव आचार संहिता लागू -
सारे के सारे अधिकार, सभी विभागों के -
हस्तांतरित हो गए, चुनाव आयोग के पास !

भाई साहब, इसमें नया क्या है ?
होता है, यही होता है
हरेक चुनाव में, सब जानते हैं !
जी हाँ जनाब, बिलकुल यही होता है, सब जानते भी हैं
कोई नई बात नहीं है
अगर कोई नई बात है तो वो ये है
कि -
कप्तान साहब ने खुद-ब-खुद, खुद की जगहंसाई करवा ली
पूछो, वो कैसे ?

हुआ दरअसल यह कि -
उनके जिले में चार-पांच थाने -
थानेदारों की पोस्टिंग के लिए खाली पड़े थे
और उनके पास -
दस-ग्यारह थानेदार भी सामने लाइन में खड़े थे
पर, सुनते हैं कि - कप्तान साहब ने
पोस्टिंग की सूची तो बनाकर
अपनी जेब में रख ली थी
और रखकर सप्ताह भर तक इधर-उधर घूमते भी रहे थे
पर ... पर क्या ?

कप्तान साहब ने दस्तखत नहीं किये थे
सूची उनकी जेब में धरी की धरी रह गई
धरी इसलिए रह गई कि -
अब सारे अधिकार कप्तान साहब से छिन कर
चुनाव आयोग के पास चले गए !
और कप्तान साहब, खुद-ब-खुद, खुद का मुंह तकते रह गए !

ये तो कप्तान साहब की जगहंसाई का -
एक मामूली-सा किस्सा है
असली जगहंसाई तो, इसी किस्से में छिपी है यारो
जो अपने आप में, जगहंसाई का एक बेजोड़ नमूना है
वो नमूना -
इनके जिले के इकलौते महिला थाने में -
थानेदार की पोस्टिंग का है ... उफ़ ! क्या कहें !!

ऐंसा नहीं था कि खाली पड़े महिला थाने में
पोस्टिंग के लिए महिला थानेदार नहीं थे
थे, तीन-चार महिला थानेदार भी थे
किन्तु, परन्तु, अब क्या कहें ...
कप्तान साहब को जगहंसाई की आदत जो पडी थी
कैसे आ जाते बाज, पैदाइसी आदत से ...
इसलिए साहब ने - वहां भी किसी की पोस्टिंग नहीं की !

और जब पोस्टिंग हुई, चुनाव आयोग से
तो महिला थाने में, पुरुष थानेदार की हुई
सुनते हैं, वो भी, कप्तान साहब की मेहरवानी से !
दुखद, किन्तु आश्चर्यजनक ...
कप्तान साहब की जगहंसाई की आदत की कीमत
बुजुर्ग, रिटायरमेंट के कगार पे खड़े
एक पुरुष थानेदार को पोस्टिंग से चुकानी पडी !

जब पत्रकारों ने कप्तान साहब से पूंछा -
तो वे हंस कर सवाल को टाल गए
और मुस्कुराते-मुस्कुराते वहां से चले गए
पत्रकार भी अचंभित हुए, और बोले -
कैसा कप्तान है यार ?
वहीं पे खड़े एक थानेदार ने कहा -
जाने दो यारो ...
कप्तान साहब को जगहंसाई का पैदाइसी शौक है !!

आजादी की दरकार ...

पुरुष धरा
तो औरत आकाश है
पुरुष नदी
तो औरत सागर है
पुरुष पवन
तो औरत संसार है
पुरुष फूल
तो औरत श्रृंगार है
चंहू ओर
औरत ही औरत है
फिर भी
न जाने क्यूं उसे -
आजादी की दरकार है !!

अस्तित्व ...

तुम क्यूँ बता रहे हो
कि -
देर से आओगे
तुम्हारा जब जी चाहे, चले आना
घर है तुम्हारा
किसने रोका है, तुम्हें
कौन रोक सकता है तुम्हें !

तुम हमेशा से
अपनी मर्जी के मालिक रहे हो
आज भी हो
जब चाहे तुम्हारी मर्जी -
आते हो
और जब चाहे, चले जाते हो !

उफ़ ! मैं कौन हूँ !!
शायद -
बिस्तर से जियादा कुछ भी नहीं !
तुम आने पर
मुझे झटकारना भी नहीं चाहते
सीधे आकर गिर पड़ते हो
और, सो जाते हो !

भले चाहे समाज मुझे -
तुम्हारी धर्मपत्नी समझता है
और भले चाहे धर्म मुझे -
तुम्हारी अर्धांग्नी मानता है
पर, मैं जानती हूँ
मेरा अस्तित्व -
बिस्तर से जियादा कुछ भी नहीं है !!

Monday, November 7, 2011

कुर्सी यात्रा ...

जन्म से लेकर, अब तक
पद,
बैलगाड़ी,
साईकल,
मोटर,
रेल,
हवाई जहाज
सब की सब यात्राएं की हैं हमने !

और तो और
समय समय पर, जब जब मौक़ा मिला
सदभावना
स्वाभिमान
जन चेतना
जैसी महत्वपूर्ण यात्राओं में भी -
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पे शरीक रहा हूँ !

काश ! हमने
एक-दो सामाजिक व जन कल्याणकारी -
यात्राएं भी कर ली होतीं
उफ़ ! मर जायेंगे तब ...
शायद ! हम ही हमारी
अंतिम यात्रा - शव यात्रा में
शरीक न हो पायें !

वजह ...
शायद ! उस समय भी हमारी आत्मा
"कुर्सी यात्रा" के मोह में
राजधानी की गलियों, चौक-चौराहों पर
किसी न किसी कुर्सी के -
सच ! इर्द-गिर्द भटकती रहे !!

पीठ की सर्जरी ...

नेता अफसर से -
और वही बात, अफसर नेता से
सीना तान के -
आपस में शान से कह रहे थे !

यारो अपुन ने भी -
पीठ की सर्जरी करवाई है
एक 'चाबी' और एक 'पर्ची' -
पीठ पे 'फिट' करवा के फुर्सत पाई है !

चाबी 'तिजोरी' की है
और पर्ची में -
स्वीस बैंक का 'कोड' लिखा है !

अब मर भी जाएं -
तो क्या फर्क पड़ता है
सारा खजाना और धन-दौलत तो अपुन -
पीठ पे बाँध के चलता है !!

राईट टू रिकाल ...

कौन कहता है
कि -
"राईट टू रिकाल"
अपने देश में सफल नहीं हो सकता
बताओ, बोलो ?

अच्छा, चलो ये बताओ -
कनिमोड़ी, राजा, कलमाडी ...
जैसे लोग -
जो भ्रष्टाचार घोटालों के लिए
जेल में हैं, जो -

तो स्वयं: स्तीफा देने वाले हैं !
ही इनकी पार्टी इन्हें -
स्तीफे के लिए मजबूर करने वाली है !
और ही -
संसद इन्हें बर्खास्त करने की सोच रही है !

फिर, इन हालात में ???
जनता ही तो, इन्हें -
"राईट टू रिकाल" का इस्तमाल कर
सबक सिखाएगी -
और इन्हें असली औकात पे लाएगी !

अब बोलो, कौन बोलता है
कि -
"राईट टू रिकाल"
अपने देश में सफल नहीं हो सकता !!

ईद मुबारकां ...

ईद मुबारकां ...
...
आओ लगकर गले, गुलज़ार कर दें ये जहां
दिल से कहें, जाँ से प्यारा है हमें हिन्दोस्तां !
...
सच ! ईद थी, पर 'ईद' में तन्हाई थी
वो उधर, और हम इधर, खामोश थे !

Sunday, November 6, 2011

अमिताभ बच्चन को कोई कुछ नहीं कहता ...

अमिताभ बच्चन जैसी शख्सियत
जब कंप्यूटर को -
"कंप्यूटर जी" कह के बुलाते हैं
तब कोई बात नहीं होती
और, उन्हें कोई कुछ नहीं कहता !

शैलेश लोढ़ा जैसे कवि
जब टेलीफोन को -
"टेलीफोन भईय्या" कह के
सम्बोदन करते हैं
तब भी कोई बात नहीं होती !

उफ़ ! आज हमारी ही सामत आई थी
जो फेसबुक को -
"फेसबुक यार" कहते हुए -
जुबां फिसल गई
बीबी ने -
सारा मोहल्ला सिर पे उठा लिया है !

अब कैसे समझाएं हम 'उदय'
कि -
फेसबुक से -
हमारा सिर्फ याराना है
कोई मुहब्बत का तराना नहीं है !

"जी" और "भईय्या" जैसी भी
कोई बात नहीं है
बस घड़ी दो घड़ी को बैठ जाते हैं
कभी उसकी सुन लेते हैं -
तो कभी अपनी कह देते हैं !
सच ! "फेसबुक" से हमारा -
इससे जियादा कोई अफसाना नहीं है !!

हमारा सरदार, असरदार है !!

हमारा सरदार, असरदार है
थोड़ा गूंगा -
थोड़ा बहरा है !

न सुनता है
न कहता है
बस मौन रहता है !

मतलब की बातें -
सुन लेता है
कह लेता है
और बीच-बीच में -
मुंडी, इधर-उधर हिला लेता है !

बिना सिर का सरदार है
लेकिन -
फिर भी असरदार है !

कोई, कहे या न कहे
माने या न माने
भ्रष्टाचार की तो बात छोडो
जब चाहे तब -
मंहगाई बढ़ा देता है

हमारा सरदार, असरदार है !!

बंधन ...

तुम औरत हो
मैं तुम से पूंछता हूँ -
कहाँ हैं बेड़ियाँ !
कहाँ हैं हथकड़ियाँ !
कहाँ हैं जंजीरें !
बंधन -
कहाँ नहीं हैं ?
जीवन में, संसार में !

रात बंधन में है
दिन बंधन में है
चाँद-सूरज भी तो बंधन में हैं
अपने अपने समय पे -
निकलते हैं, और डूब जाते हैं !

आदमी भी कहाँ स्वछंद है
जो
औरत को -
आजादी की जरुरत है !
सिर्फ औरत नहीं -
आदमी भी बंधन में है !

चाँद, तारे, फूल, खुशबू
सूरज, पवन, गगन, जीवन, मृत्यु
सब के सब -
कहीं न कहीं, कुछ न कुछ
बंधन में है !
सिर्फ औरत नहीं -
ये सारा संसार बंधन में है !!

... खून की नदियाँ बहाई जाएं !

सच ! 'खुदा' के करम पे, यारों यकीं रखना
वो खट से सुन लेगा, दुआ में रहम रखना !
...
एक दिन हमने उन्हें, इन नज़रों से क्या छू लिया
वो, उस दिन से आज तक, सहमे सहमे हुए हैं !!
...
यादों के साये में, जिंदगी यूँ ही कटती रहे 'उदय'
कभी वो हमें याद आते रहें, तो कभी हम उन्हें !
...
कदम बढ़ रहे हैं, और हम चल रहे हैं
'सांई' जाने, कब मंजिलें मिल जाएं !
...
तेरे मखमली जिस्म को छूकर, नजर फिसल गई मेरी
सच ! 'खुदा' जाने, तुझे छूकर, मेरा हाल क्या होगा !!
...
खुद को चेतन करना छोड़, जन चेतना में उलझे हैं
उफ़ ! सत्ता का मोह, क्या से क्या न करा दे !
...
आज मौक़ा मिला था, मगर अफसोस
वो भी खामोश थे, हम भी खामोश थे !
...
भड़वागिरी का हुनर, तारीफ़-ए-काबिल है इनका
ये दूजों को सुलाते सुलाते, खुद भी सो जा रहे हैं !
...
कयामती मंजर से बचने का हुनर, 'खुदा' ही जाने है
हम तो खुद ही कयामती आहटों से डरे सहमे हुए हैं !
...
बहुत हो गई, पूजन गंगा की 'उदय'
क्यूँ न खून की नदियाँ बहाई जाएं !

Saturday, November 5, 2011

चमचों का सरदार ...

एक भाई साहब
आज सुबह सुबह बिना ब्रेक की गाडी की तरह
आकर मुझ से भिड़ पड़े
बोले - क्यूँ भाई साहब -
आपको चमचों से इतनी एलर्जी क्यों है ?
मैंने कहा - आपको किसने कह दिया
कि -
मुझे चमचों से एलर्जी है !

अब इसमें कहने-सुनने की, क्या बात है
जब देखो तब -
पिल पड़ते हो अपने लेखन में चमचों पे
आपने, उनका जीना दुभर कर रक्खा है
बेचारे -
चैन से चमचागिरी तक नहीं कर पा रहे हैं !

मैंने कहा - सुनिए हुजूर
चमचे और चमचागिरी तो मेरे आदर्श पात्र हैं
देखना इक दिन इन्हीं आदर्श पात्रों पे
लिख लिख के, कलम घसीटी कर कर के
मैं भी गुरु बन जाऊंगा
वह दिन दूर नहीं, जब -
मैं भी चमचों का सरदार कहलाऊंगा !!

साइलेंस प्लीज ...

ईश्वर मुझे देख रहा था
मैं ईश्वर को देख रहा था
वो भी खामोश था
मैं भी चुपचाप था
उसकी तो, वो ही जाने
पर मैं करता भी क्या ?
वो ईश्वर, तो मैं इंसान था !
वो परीक्षा ले रहा था
मैं परीक्षा दे रहा था
परीक्षा पटल पे लिखा था
साइलेंस प्लीज
परीक्षा चल रही है
शोर-गुल पर
रेस्टीगेशन संभव है !!

बेटी ...

बाबुल के गाँव की -
तुलसी
पिया घर पहुँच के -
पीपल हुई है !

हुआ करती थी जो
खुद आँगन की रंगोली
पहुँच ससुराल वह -
पांव की मेंहदी हुई है !

दमकती थी जो
बन माथे की बिंदिया
पिया घर पहुँच के -
करधन में लटकी चाबी हुई है !

पूजी जाती थी जो
खुद गाँव में देवी की तरह
पिया घर पहुँच के -
वो आज पुजारिन हुई है !

फर्क देखो
बेटी और बहु में तुम 'उदय'
कहीं तुलसी -
तो कहीं पीपल हुई है !!

पुरुष्कृत कवि की कविताएँ ...

एक दिन
मैं
एक पुरुष्कृत कवि से टकरा गया
अरे नहीं, उनसे नहीं, उनकी कविताओं से
अब चूंकि -
एक पुरुष्कृत कवि कि -
कविताएँ थीं
इसलिए पढ़ना भी जरुरी था !

पढ़ते पढ़ते कविताएँ -
थकान सी
ऊबान सी
आने लगी थी, जी ने चाहा
कि -
बीच में ही छोड़ के निकल जाऊं
फिर सोचा, नहीं, ऐंसा उचित नहीं होगा
यह पुरुष्कृत कवि का नहीं
पुरुष्कार देने वालों का अपमान होगा !

जबरदस्ती पढ़ते रहा
पढ़ते पढ़ते नींद गई
नींद जब टूटी, तो सन्नाटा-सा पसरा था
मैं डर गया, सहम गया
इधर उधर देखने लगा, कुछ नहीं सूझा
फिर, आँखें मींड कर देखा
सामने
एक पुरुष्कृत कवि की कविताएँ रखी थीं !
और वहीं नीचे, उनके चेलों-चपाटों -
तथा
पुरुष्कृत करने वालों के द्वारा
कविताओं की तारीफ़ के पुल बांधे गए थे !!

Friday, November 4, 2011

... कोई हिसाब-किताब नहीं है !

वो सूने कोने में बैठ, शायरी लिख रहा था 'उदय'
और हम भीड़ में, दाद पे दाद दिए जा रहे थे !!!
...
चरखे की चकरी बन के, घन-घना रहे हैं लोग
न सूत है, न कपास, फिर भी बज रहे हैं लोग !
...
न दर है, न छत है, और न ही दीवार है 'उदय'
उफ़ ! तम्बू को ही, हवेली समझ रहे हैं लोग !
...
चलते चलते धरने, प्रदर्शन, यात्राएं हो जाएं यारो
सच ! 'सांई' जाने, किस घड़ी बुलावा आ जाए !!
...
काश ! सबब दोस्ती का वो समझ गए होते
कभी इस, तो कभी उस, दर पे नहीं होते !!
...
कितना भी, क्यूँ न अंधकार हो, चले चलो
दिन दूर नहीं, जब उजाले ही उजाले होंगे !
...
मरने के बाद सारा शहर गुणगान कर रहा है 'उदय'
ज़िंदा थे, तब शहर में शमशानी सन्नाटा क्यूं था !!
...
उत्तर प्रदेशी अखाड़े में, खूब चहल-पहल है यारो
सच ! लगे है कि दंगल में भी खूब मजा आयेगा !
...
क्या खूब सौदागिरी चल रही है मेरे मुल्क में 'उदय'
सरकार, सरकार नहीं, व्यापारिक संस्थान हुई है !
...
सच ! वो सरकार में हैं, पर सरकारी नहीं हैं
ये कैसी सरकार है, जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं है !

अपनी अपनी धुन ...

सर्द रातें आ गई हैं
अब कौन निकाले -
कम्बल
रजाई
आओ, इधर आओ
सिमट कर
लिपट कर
हम ही सो जाएं ...
उन रातों की तरह
जब होती थी -
कड़कडाती ठंड बाहर
और हम
बिना कम्बल -
बिना रजाई के
लिपटे, सिमटे
सोये रहते थे ...
अपनी अपनी धुन में !

लेखन के शौक़ीन ...

मैं उनके लिए नहीं लिखना चाहता
जिन्हें
दूसरों का लिखा भाता नहीं है !

मैं उनके लिए भी नहीं लिखना चाहता
जिन्हें
खुद के सिबा -
किसी और की तारीफ़ पसंद नहीं है !

सच ! मैं उनके लिए तो
कतई ही नहीं लिखना चाहता
जिन्हें
किसी न किसी ने -
पंदौली देकर ऊपर पहुंचाया है !

मैं लिखना चाहता हूँ
लिखता हूँ
सिर्फ उनके लिए
जिन्हें
न सिर्फ पढ़ने की समझ है -
वरन जो -
अच्छे लेखन के शौक़ीन भी हैं !!

... उनपे कैसी क़यामत होगी !

सारा शहर आतुर है फना होने को तुम पर
उफ़ ! और आज भी हम, जस-के-तस हैं !
...
आज मेरे मुल्क में, शैतानों की हुकूमत है 'उदय'
इंसान दर्द सह तो ले लेकिन, उसे छिपाए कहाँ !
...
तुमने दिल तोड़ के, हिसाब चुकता कर लिया
अब न कहना, कि कुछ उधार रह गया मेरा !
...
क्या हुआ जो उसने कातिल कहा मुझे
देखते ही देखते, रुतबा जो बढ़ गया !!
...
जीत के भाव, गर जज्बे में समा जाएं 'उदय'
कौन-सी जंग है, जो जीत में आसां न लगे !
...
रंज होगा तुम्हें, जानकर वजह खुश होने की
तुम्हें रोते देखे बगैर, प्यार उमड़ता कब है !!
...
वक्त की मार, जब पड़ती है मासूम रूह पे 'उदय'
नंगे पैरों को भी, काँटों पे चलना सिखा देती है !
...
सच ! जोकर समझ के मुझको, हंसने लगा शहर
करते भी क्या, मातमी शहर हमें भाता नहीं था !
...
माथे पे टीका लगा के, आज पंडित वो हो गया
कल तक सुना था हमने, कातिल हुआ था वो !
...
वो मेरी मौत की खबर सुन, खुशियों से झूम उठे थे 'उदय'
'रब' जाने, देख ज़िंदा मुझे, उनपे कैसी क़यामत होगी !!!

Thursday, November 3, 2011

जन लोकपाल रूपी बवंडर : साहित्यिक जमात संशय में !!

जन लोकपाल रूपी बवंडर को देश में उड़ता देख साहित्यिक मठों में भी खल-बली मच गई तथा आनन्-फानन में एक मीटिंग का आयोजन किया गया, मीटिंग की खबर सुनते ही सारे मठाधीश और उनके चेले-चपाटे जो जिस हालत में थे उसी हालत में तत्काल मीटिंग स्थल पर पहुँच गए ! मठाधीशों, उनके चेले-चपाटों तथा भाई-भतीजों की भीड़ लग गई, चूंकि मुद्दा बेहद संवेदनशील था इसलिए आपस के मन मुटावों को भुला कर सभी एक-दूसरे के मुंह को आशा भरे भाव से निहारने लगे !

मीटिंग के शुभारंभ में कोई भूमिका बांधने, मान-सम्मान जैसे प्रोटोकाल को दर किनार करते हुए सीधे मुद्दे को छेड़ा गया तथा माइक को हाँथ में लेकर चेले-चपाटों के गुरु - गुरुघंटाल ने बोलना शुरू किया - मेरे मन और मस्तिक में वास करने वाले पूज्यनीय, आदरणीय, सम्माननीय, देवी-देवताओं आप को बताते हुए मेरे मन में संशयरूपी हलचल सी मची हुई है फिर भी बताना अत्यंत आवश्यक है कि अपने देश में एक "जन लोकपाल रूपी" बवंडर उठा हुआ है जिससे देश की सत्ता व सभी राजनैतिक दल सहमे व डरे हुए हैं उन्हें इस बात का भय है कि कहीं यह बवंडर उन्हें उड़ाकर ले जाकर किसी अंधेरी काल कोठारी में न पटक दे, और उन्हें सारा जीवन चक्की पीस-पीस कर गुजारना पड़े !

चूंकि हम सभी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर उनसे जुड़े हुए हैं और किसी न किसी के रहमो करम पर ज़िंदा हैं इसलिए हमने अर्थात यहाँ उपस्थित सभी बड़े बड़े देवताओं ने यह सोच-विचार कर निर्णय लिया है कि इस जन लोकपाल रूपी समस्या से निपटने का कोई न कोई हल क्यों न हम पहले से ही निकालने की दिशा में कदम बढ़ा लें ताकि हमें भी किसी अनहोनी का सामना न करना पड़े, आज की इस मीटिंग के आयोजन का यही एक मात्र मकसद है अब आप सभी अपने अपने विचार व्यक्त करें ... गुरुघंटाल का संक्षिप्त भाषण सुनते-सुनते, सुनते ही सम्पूर्ण कक्ष में सन्नाटा-सा छा गया, सब एक-दूसरे के मुंह को उम्मीद भरी नज़रों से देखने लगे !

लगभग आठ-दस मिनट तक सन्नाटा पसरा रहा, चूंकि सभी जन लोकपाल रूपी बवंडर से भली-भाँती परिचित थे इसलिए भय व संशय ने सबके मुंह को सिल कर रखा हुआ था ... सब की सिट्टी-पिट्टी बंद, लाईट गुल, ब्रेक फ़ैल, को देखते हुए गुरुघंटाल ने पुन: बोलना शुरू किया - सुनो मेरे प्रिय देवी देवताओं, मेरे मन में एक विचार है विचार यह है कि जब बड़े से बड़े नेताओं के विचार शून्य हो रहे हैं तब अपुन लोगों का संशय में रहना कोई अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है, लेकिन मुझे, आई मीन हमें विश्वास है कि इस समस्या का कोई हल भले हमें नहीं सूझ रहा है पर हमारी बिरादरी के वो "बाबा जी" ... जो हैं तो हमारी बिरादरी के ही पर ... पर वो हम लोगों की गुरुघंटाली के कारण ... खैर छोडो पुराने गिले-शिकवे ... क्यों न एक बार उनसे सलाह-मशवरा कर लिया जाए, मुझे यकीन है कि वे जरुर कोई हल सुझा देंगे ... चारों तरफ से आवाज गूँज पडी - हाँ ... हाँ ... हाँ ... एक वही हैं जो कुछ न कुछ हल जरुर बता सकते हैं !

एक राय पर मीटिंग का समापन हुआ तथा दूसरे ही क्षण दस गुरुघंटालों का एक दल "बाबा जी" की ओर रवाना हो गया ... संयोग देखिये कि जो बाबा जी हर समय साहित्यिक बिरादरी के आयोजनों से उपेक्षित रहे थे आज पूरी की पूरी साहित्यक जमात मुश्किल घड़ी में उन्हीं "बाबा जी" की ओर चल पडी है ... गाँव में प्रवेश करते ही प्रतिनिधि मंडल ने आपस में यह तय कर लिया कि सभी बाबा जी के स्वभाव से परिचत हैं इसलिए उनके कड़वे, तीखे, विषेले, कंटीले, बोल-वचनों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना है कोई भी सुनकर रोष व्यक्त नहीं करेगा, हमें सिर्फ अपने मतलब की बातें सुनना है !

बाबा जी अपनी झोपडी के बाहर आँगन में ही एक खटिया पर बैठे हुए थे, इन गुरुघंटालों को आते देख खटिया से उठते हुए बोले - आओ चले आओ .. आज गिरगिटों, मेढकों, शेखचिल्लियों, चिलगूजों, मदारियों, जोकरों, लम्पटों, पर एक कविता लिखने का मन बना रहा था ... चलो अच्छा हुआ तुम लोग आ गए, लगता है शहर से तथा ऊंचीं हवेलियों से पेट नहीं भर रहा है इसलिए गाँव और झोपड़ियों पर नजर गडाने आ गए हो, अब आ गए हो आ जाओ, सुनाओ क्या खिदमत करूँ ... बाबा जी के अनमोल-बोल सुनने के बाद धीरे से सब ने अपना दुखड़ा सुनाया ... दुखड़ा सुनकर दो-तीन मिनट सोचने के बाद बाबा जी ने कहा - सब लोग अपने अपने "कान खुजा" कर इधर आ जाओ, एक बार बताऊंगा, ठीक से सुन लेना ... सब लोग अपने अपने "कान खुजा" कर बाबा जी के पास कान सटा कर बैठ गए ... बाबा जी ने जन लोकपाल रूपी समस्या से निदान का एक मंत्र कानों में फूंक दिया ... मंत्र को सुनते ही सब के चेहरे खिल उठे तथा बाबा जी का आशीर्वाद लेकर वापस राजधानी पहुँच कर अपने अन्य सांथियों को मंत्र से अवगत कराया, मंत्र को सुनकर खुशी का माहौल हो गया तथा सभी के चेहरे पहले की तरह चमकने लगे ... सुकूं की ठंडी सांस लेते हुए सब बोल पड़े - अब देखते हैं ये जन लोकपाल रूपी बवंडर हमारा क्या बिगाड़ लेगा !!

एक बिना सिर-पैर की कविता ...

आज फिर से -
मेरा मन हो रहा है
कि -
लिखूं, एक और बे-सिर-पैर की कविता !

जिसमें -
क्रिकेटर चौके-छक्के लगा रहा है !
जिसमें -
फुटबालर गोल पे गोल ठोक रहा है !
जिसमें -
बच्चे बीच सड़क पे गिल्ली-डंडा खेल रहे हैं !
जिसमें -
गाँव के कुछ निकम्मे चबूतरे पे बैठ ताश खेल रहे हैं !
जिसमें -
लड़कियाँ आँगन में रंगोली बना रही हैं !
जिसमें
औरतें सिर पे मटका रख कुएं से पानी ला रही हैं !
जिसमें -
किसान खेत में हल जोत रहा है !
जिसमें -
मजदूर सवारी बिठा के रिक्शा खींच रहा है !
जिसमें -
अफसर रिश्वत में मिले नोट गिन रहा है !
जिसमें -
नेता देश को लूटने की योजना बना रहा है !
जिसमें -
प्रेमी अपनी रूठी प्रेमिका की राह तक रहा है !
जिसमें -
पति पत्नि एक-दूसरे को बांहों में समेट रहे हैं !

पर क्या मिलेगा मुझे
ऐंसी सड़ी-गली, या यूँ कहूं -
आर्टिस्टिक कविताएँ लिखने से
शायद ! कुछ भी नहीं
सिर्फ -
झूठी-मूठी वाह-वाही, और कुछ तालियाँ !

क्या फर्क पड़ता है
कि -
कुछ मिले, या न मिले
कविता है, क्या कविता का भी कोई सिर-पैर होता है
नहीं होता !
इसलिए ही, मन हुआ, तो लिख दी -
अपुन ने भी, एक बिना सिर-पैर की कविता !!
बोलो, कैसी लगी, आ गया न मजा, हाँ या ना !!

Wednesday, November 2, 2011

उधेड़बुन ...

स्मृति सभाएं
शोक सभाएं
शुरू हो गई हैं, जगह जगह !

लोगों को, मेरे मरने का इंतज़ार था
रोटियाँ सेंकने के लिए !

अब खूब सिकेंगी रोटियाँ
कहीं कहीं तो -
गांकरें भी सेंकी जाएंगी !

ठीक है, ठीक ही है
जीते जी -
मैं उतना, खुद के काम नहीं आ पाया
जितना, मरने के बाद -
लोगों के काम आ रहा हूँ !

इसी उधेड़बुन में
बहुतों के पेट भर जाएंगे !!

सवालों पे सवाल ...

हुजूर, आप भी ...
कभी शायरी
कभी कविता
कभी व्यंग्य
कभी हास्य
कभी कहानी
कभी लघुकथा
कभी कुछ और
दरअसल आप लिखते क्या हो ?
क्या कुछ कन्फ्यूजन है ?
या कुछ सीख रहे हो ?
मुझे तो लगता है
कि -
आप खिलाड़ी नहीं हो, बोलो सच कहा न ?
खैर छोडो, ये बताओ ऐंसा क्यूँ कर रहे हो ?
कहीं एक जगह टिकते क्यूँ नहीं हो, हुजूर ?
मैंने कहा ... जी ...
अच्छा जाने दो -
मुझे जल्दी है, फिर किसी दिन बता देना !!

Tuesday, November 1, 2011

क्या खूब जिंदगी है !!

सुबह से शाम तक
हम इस गुन्ताड में रहते हैं
कि -
कहाँ से कितने रुपये बटोरे जाएं
और, कितनों को चूना लगाया जाए
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस जुगाड़ में रहते हैं
कि -
काश ! आज एकाद आइटम पट जाए
और, खूब मौज-मजे होते रहें
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इन्हीं ख्यालों में रहते हैं
कि -
कम से कम, हम आज निपट न जाएं
भले अड़ोसी-पड़ोसी निपट जाएं
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस प्रयास में रहते हैं
कि -
पीने-खाने का जुगाड़ हो जाए
और, मुफ्त में ही इंजॉय चलता रहे
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हमारा मकसद यही रहता है
कि -
बॉस के सांथ अपनी सेटिंग बनी रहे
भले लोगों
का छत्तीस का आंकड़ा हो जाए
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस फिराक में रहते हैं
कि -
हमारी आजादी में दखल न पड़े
भले बूढ़े माता-पिता तड़फते-बिलखते रहें
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस संशय में रहते हैं
कि -
कोई हमारी टांग पकड़ के न खींच दे
भले ही हम लोगों की खींचते रहें
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हर पल, हर घड़ी, हर लम्हें में
हम इसी चाहत में रहते हैं
कि -
हम किसी न किसी की बजाते रहें, बैंड
पर, कोई हमारी न बजा पाए
क्या खूब जिंदगी है !!