Saturday, March 31, 2012

लुत्फ़ ...

किसी भी ख़त का किस्सा, सुनने नहीं मिला
करूँ कैसे यकीं, कि ख़त मेरे तुझको मिले हैं ?
...
तुम्हारी हाँ, हो तो भी ठीक, न हो तो भी ठीक
सच ! तुम्हें चाहने का, लुत्फ़ ही कुछ और है !!

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

चाहना आनन्ददायक है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
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अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!

virendra sharma said...

फूल तुम्हें भेजा है ख़त में.....

प्रतीक्षा में युग बीत गए ,सन्देश न कोई मिल पाया ,

सच बतलाऊँ तुम्हें प्राण ,इस जीने से मरना भाया .