Sunday, September 29, 2013

भाजपा-कांग्रेस दोनों के सिर पर मंडराते संकट के बादल ?

भाजपा-कांग्रेस दोनों के सिर पर मंडराते संकट के बादल ! 

आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह राजनैतिक परिवर्तन का दौर है, व्यवस्था परिवर्तन का दौर है, सत्ता परिवर्तन का दौर है, विकास का दौर है, नई तकनीक का दौर है, नई उम्मीदों व नई आशाओं का दौर है ! लेकिन यह दौर, आज का दौर, हमारे सबसे बड़े राजनैतिक दलों कांग्रेस व भाजपा दोनों के लिए संकट का दौर है, संकट का दौर इसलिए कि देश की जनता निरंतर हो रहे भ्रष्टाचार व घोटालों से तंग आ चुकी है, इसलिए वह बदलाव चाहती है, व्यवस्था में परिवर्तन चाहती है, एक ऐसी व्यवस्था चाहती है, एक ऐसा सशक्त क़ानून चाहती है जो भ्रष्टाचारियों, घोटालेबाजों, बलात्कारियों व जघन्य हत्याओं के आरोपियों को कठोर दंड से दण्डित कर सके ! 

यदि हम केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस की बात करें या सत्ता के विपक्ष में बैठी भाजपा की बात करें तो दोनों की सोच व विचारधारा में हमें ज्यादा अंतर नजर नहीं आता है, दोनों ही दल अपनी अपनी जगह पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता का सुख भोगने में मशगूल हैं, इनकी प्रजा अर्थात जनता किस हाल में है ? क्या चाहती है ? इससे दोनों को कोई लेना-देना है भी या नहीं, यह जाहिरा तौर पर कतई नजर नहीं आता है, यदि कहीं कुछ नजर आता है तो ये दोनों दल एक दूसरे को पटकनी देने की मुद्रा में हर क्षण भौंएँ ताने नजर आते हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसा प्रतीत होता है कि इनके जेहन में जनता के प्रति संवेदनशीलता एक तरह से मर सी गई है, यहाँ यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि इन्हें न तो जनता की चिंता है और न ही जनता के हितों की ! 

खैर, लेकिन, फिर भी, यहाँ यह चर्चा करना मैं जरुरी समझता हूँ कि यदि दोनों दल इसी तरह एक दूसरे की देखा-देखी दिखावटी कदम ताल करते रहे, एक दूसरे पर स्वार्थगत आरोप प्रत्यारोप लगाते रहे, अपने अपने व्यक्तिगत व राजनैतिक हित साधते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब कोई नया दल चमत्कारी ढंग से इन्हें पटकनी देकर सत्ता रूपी घोड़े में सवार हो जाए ! एक सवाल मेरे जेहन में बिजली की भाँती कौंध रहा है कि निरंतर गिरते जनाधार के बीच तथा नीति व दिशाविहीन गठबंधनों के सहारे यदि कांग्रेस आगे का सफ़र तय करना चाहती है तो कब तक ? कहाँ तक ? क्या कांग्रेस का थिंक टैंक पूरी तरह ध्वस्त हो गया है ? यह सवाल जरुर मेरे जेहन में कौंध रहा है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि इस सवाल का जवाब स्वयं कांग्रेस ढूंढे !

वहीं दूसरी ओर मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि विगत कुछ वर्षों में निरन्तर हुए भ्रष्टाचार व घोटालों के कारण कांग्रेस के गिरते जनाधार की वजह से, या सहयोगी दलों की उठा-पटक से निर्मित हो रही दुर्दशा की वजह से, या व्यवस्था परिवर्तन व जनलोकपाल रूपी आन्दोलनों की वजह से निर्मित हालात को देखते व भांपते हुए भाजपा के ख्यालों में सत्ता रूपी ख्याली रसगुल्ले पकने शुरू हो गए हैं ! जबकि, जहाँ तक मेरा मानना है कि आज देश की जनता केंद्र में भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देख रही है, वो तो भ्रष्टाचार व घोटालों के कारण जनता के मन में कांग्रेस के प्रति जो आक्रोश व्याप्त हुआ है उसके कारण भाजपा थोड़े-बहुत बढ़त की मुद्रा में नजर आ रही है ! वर्ना, भाजपा में ऐसी कोई नई व भिन्न बात नहीं है जो उसे कांग्रेस से एक अलग पहचान दे ! 

देश के जनमानस को कांग्रेस व भाजपा की नीतियों, सोच व विचारधाराओं में कोई ज्यादा भिन्नता नजर नहीं आती है, यहाँ सवाल यह उठता है कि भिन्नता नजर आये भी तो आये कहाँ से, कैसे, क्यों ? जब दोनों ही दलों का रवैय्या भ्रष्टाचार व घोटालों के मुद्दों पर लगभग एक जैसा है, जाति व धर्म की वोट नीति पर एक जैसा है, आपराधिक व दागी स्वभाव के प्रतिनिधियों के सन्दर्भ में भी आचरण व् व्यवहार एक जैसा है, और तो और दोनों की चुनावी व नीतिगत कार्यशैलियों में भी कहीं कोई निष्पक्षता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता नहीं है ! लगभग सभी पैमानों पर, मापदंडों पर, दोनों सगे व जुड़वा भाई से नजर आते हैं, भाजपा में कहीं कोई ऐसे अलग भाव नहीं हैं जो जनता को कांग्रेस से अलग नजर आयें !

इन उपरोक्त मुद्दों पर मैं कोई मनगढ़ंत बात नहीं कर रहा हूँ, और न ही मेरी कोई ऐसी मंसा है कि आंकलन में कोई भेद करूँ या कोई पक्षपात करूँ, और न ही मैं किसी का घोर विरोधी या समर्थक हूँ ! आप स्वयं देख सकते हैं व महसूस कर सकते हैं कि जो हाल भ्रष्टाचार व घोटालों के मुद्दे पर, निष्पक्षता व पारदर्शिता के मुद्दे पर, सशक्त लोकपाल व लोकायुक्त के मुद्दे पर, केंद्र में कांग्रेस गठबंधन सरकार का है लगभग वही हाल भाजपा शासित राज्यों में भाजपा का है ! यह कहना किसी भी दृष्टिकोण से अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि दोनों दल अपने अपने स्थान पर सत्ता का भरपूर मजा ले रहे हैं, और रही बात योजनाओं की, विकास की, जनता की, जनभावनाओं की, तो वह भगवान भरोसे है ! 

सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो देश की जनता राजनैतिक नीतियों, सोच व विचारधारा के मामले में कांग्रेस व भाजपा दोनों से ऊब गई है, वही पुराने दावे, वही पुराने वादे, वही घिसी-पिटी बातें, कब तक ? कहाँ तक ? आज परिवर्तन का दौर है, विकास का दौर है, नई तकनीक का दौर है, जहां चारों ओर विकास व तकनीक की क्रान्ति छिड़ी हुई है वहां आज भी हमारी ये दोनों सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टियां जाति व धर्म से सम्बंधित वोट बैंक की राजनीति करने में मशगूल हैं ! इन परिस्थितियों में जनता का इनसे मोह हट जाना, इनके प्रति ऊब उत्पन्न हो जाना, कहीं कोई अचरज जैसी बात नहीं है, यहाँ यह कहते हुए मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि स्वयं इनकी कालगुजारियों की वजह से आज जनता तीसरे विकल्प की ओर अग्रसर हो रही है ! 

अब, आज वह दौर नहीं रहा जब छल व प्रपंच को राजनीति व कूटनीति का नाम देकर सत्ता में बने रहो या सत्ता हासिल कर लो, और न ही वह दौर रहा जब झूठे वादों और दावों के बल पर लम्बे समय तक तिकड़मी मंसूबों को साधे रहो, आज का दौर निसंदेह परिवर्तन का दौर है, विकास का दौर है, नई सोच व नई विचारधारा का दौर है, कुछ नया करने का व कर के दिखाने का दौर है ! अगर आज भी, इस दौर में भी, हमारे राजनैतिक दल इस सोच व विचारधारा के साथ चल रहे हैं कि वे जाति व धर्म के नाम पर, या झूठे दावों और वादों के नाम पर सत्ता हासिल कर लेंगे, या सत्ता में बने रहेंगे तो मेरा मानना तो यह है कि वे भ्रम में हैं और भ्रम से बाहर निकलना ही नहीं चाहते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि अब वे तब ही चेतेंगे जब इनका भ्रम स्वयं इनका घटता जनाधार तोड़ेगा !

यदि इन्हें इनकी वर्त्तमान वास्तविकता पे यकीन नहीं है तो ये अपने पिछले दस साल के ग्राफ को देखकर व विश्लेषण कर स्वयं ही अपनी आँखें खोल सकते हैं अर्थात अपनी स्थिति व निरंतर गिरते जनाधार को देख सकते हैं, भांप सकते हैं ! मेरा तो स्पष्ट तौर पर मानना है कि देश के दोनों बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस व भाजपा इस तथ्य के जीते जागते उदाहरण हैं जो तीव्रगति से अर्श से फर्श की ओर जाते हुए दिखाई दे रहे हैं ! खैर, अपने को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि कौन अर्श पे रहेगा और कौन फर्श पे, अपना अभिप्राय तो सिर्फ इतना है कि देश की सत्ता ऐसे लोगों के हांथों में रहे जो दागदार न हों, सजायाफ्ता न हों, छल व प्रपंच के उस्ताद न हों, झूठे दावों और झूठे वादों के खिलाड़ी न हों, अगर वो हों तो निष्पक्ष हों, पारदर्शी हों, साफ़-सुथरी छबी के हों, साफ़-सुथरे ख्यालों के हों, जिन पर देश का जनमानस गर्व कर सके !

अगर आज भी, अब भी, इन हालात में भी, ये दोनों दल अपने पुराने ढर्रे पर चलते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब स्वयं ये अपने अस्तित्व को ढूँढते गाँव-गाँव व शहर-शहर में नजर आयें, और इन्हें अपने अस्तित्व के अवशेष भी न मिलें ! खैर, ये हमारी समस्या नहीं है, अगर ये अपनी कार्यशैली, सोच, नीतियों व विचारधाराओं में बदलाव नहीं लाते हैं तो अपने अच्छे व बुरे के लिए ये स्वयं ही जिम्मेदार होंगे, किन्तु इस सन्दर्भ में मेरी व्यक्तिगत राय तो यही है कि अभी भी ज्यादा कुछ बिगड़ा नहीं है, गर समय रहते समय के अनुकूल ये दोनों दल अपनी नीतियों, सोच व विचारधाराओं में बदलाव ले आते हैं तो अभी भी एक सुनहरा कल इनकी राह तक रहा है, अन्यथा संकट के बादल तो सिर पे मंडरा ही रहे हैं ! वैसे भी 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाली कहावत अपने आप में सिद्ध व चरितार्थ है जो सभी पर लागू होती है, जय हिन्द, जय लोकतंत्र !! 

Saturday, September 28, 2013

दावों बनाम वादों की राजनीति ?

दावों बनाम वादों की राजनीति ! 

भारत दुनिया का एक विशालतम लोकतंत्र है किन्तु आज यह भ्रष्टाचार व घोटाले रूपी जिस जघन्य दौर से गुजर रहा है उसे देखकर व उसके बारे में सोचकर अन्दर ही अन्दर एक अजीब तरह की खीज व तिलमिलाहट शुरू हो जाती है, सरल शब्दों में कहा जाए तो खून उद्धेलित होने लगता है, मन आक्रोशित होने लगता है, ऐसे में एक सवाल उठता है कि आखिर ये हालात बने कैसे ? कौन है इन हालात के लिए जिम्मेदार ? इन प्रश्नों के उत्तर उतने भी कठिन नहीं हैं कि आम सोच व समझ का व्यक्ति भी न समझ सके !

जहाँ तक मेरा मानना है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो इन हालात के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से वर्त्तमान राजनीति की सोच, विचारधारा व नीतियाँ जिम्मेदार हैं लेकिन इस कड़वे सच को मानने के लिए कोई तैयार नहीं है, जब हम इस विषय पर चर्चा करेंगे या करते हैं तो तमाम राजनैतिक व बुद्धिजीवी लोग अपने मनगढ़ंत तर्कों से खींच-तान कर इन हालात के लिए आम जनमानस को ही जिम्मेदार ठहरा देते हैं तथा यह कहकर पल्ला झाड लेते हैं कि जनता ही तो अपने प्रतिनिधि चुन रही है !  

वैसे, इसमें दोराय नहीं है कि देश का अवाम ही अपने राजनैतिक प्रतिनिधियों का चयन कर रहा है लेकिन फिर भी देश के अवाम अर्थात जनमत को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा क्योंकि वह अपने प्रतिनिधियों को यह सोचकर चुन कर विधानसभा या लोकसभा में नहीं भेजता है कि वह वहां जाकर अपनी मनमानी करने लगें, भ्रष्टाचार व घोटाले करने लगे, वे देश व क्षेत्र का नाम गौरवान्वित करना छोड़कर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ती के लिए देश व क्षेत्र को कलंकित करने लगें ? साथ ही साथ अवाम के सामने वही घिसे-पिटे एक दो विकल्पों के अलावा कोई और विकल्प भी तो नहीं होते हैं ?

खैर, इस विषय पर अगर हम गहन चर्चा में कूद पड़ेंगे तो शायद अपने मूल विषय से भटक जाएँ, वैसे अपने मूल विषय 'दावों बनाम वादों की राजनीति' के जन्मदाता ये हालात ही हैं, अभिप्राय यह है कि वर्त्तमान राजनीति के केंद्रबिंदु 'दावे' और 'वादे' ही हैं, स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने 'दावों और वादों' को चुनाव जीतने के लिए अपना मूल हथियार बना लिया है, दोनों ही पक्ष ठीक चुनाव के पूर्व अपने अपने दावे व वादे रूपी हथियारों को प्रभावशाली व आकर्षक ढंग से प्रयोग में लाते हैं तथा अपने अपने चुनावी मंसूबों को साध लेते हैं।  

आपके जेहन में यह प्रश्न कौंधना स्वाभाविक है कि राजनैतिक दल 'दावों और वादों' को अपना हथियार कैसे बना लेते हैं ? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि सत्ता में बैठा राजनैतिक दल ठीक चुनाव के पूर्व यह 'दावा' करने में लग जाता है कि उसने अपने कार्यकाल के दौरान इतनी सडकों, पुलों, ओवरब्रिजों, भवनों, जिलों, तहसीलों, थानों, इत्यादि का निर्माण कराया, रोजगार के हजारों-लाखों अवसर उपलब्ध कराये, किसानों के हित में ये किया वो किया, बगैरह बगैरह ऐसे दावे होते हैं जिन्हें वे चुनावी हथियार के रूप में प्रयोग में लाते हैं। 

ठीक इसके विपरीत विपक्ष में बैठा राजनैतिक दल भी कम होशियार नहीं होता है वह 'वादों' को अपना चुनावी हथियार बना कर प्रयोग में लाता है वह कदम कदम पर वादों की झड़ी लगाते रहता है, कदम कदम पर यह दम ठोकते रहता है कि चुनाव जीतकर आने पर वह किसानों के ऋण माफ़ कर देगा, व्यापारियों को टैक्स में छूट देगा, फलां फलां जाति को आरक्षण देगा, रोजगार के भिन्न भिन्न अवसर प्रदान करेगा, ये निर्माण करेगा वो निर्माण करेगा, यहां ये करेगा वहां वो करेगा, इस तरह के तमाम वादों की झड़ी लगा लगाकर चुनावी मैदान जीतने के प्रयास में लग जाता है।  

अब यहाँ सवाल ये है कि दोनों के दावे और वादे व्यवहारिकता में कितने सही हैं ? कितने खरे हैं ? कितने खरे उतरेंगे ? इस सच्चाई को जानने व समझने का समय आम जनमानस के पास होता कहाँ है वह तो सुबह से शाम तक अपने दैनिक क्रियाकलापों में उलझा रहता है, अपनी व अपने परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए खटते रहता है, भटकते रहता है, आम आदमी की रोजमर्रा की इस आपा-धापी के बीच चुनाव कब आते हैं और कब गुजर जाते हैं, यह भी अपने आप में एक पहेली से कम नहीं है।

खैर, इन सब के बीच दावे और वादे रूपी चुनावी हथियार चलते रहते हैं, आम आदमी अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने में उलझा रहता है, लोग चुनाव हारते व जीतते रहते हैं, सरकारें बनते व बिगड़ते रहती हैं, कितने दावे सही हैं, कितने वादे पूरे होंगे या हुए हैं, यह सिलसिला चलते रहता है। और, अगर, यदि कोई दावों और वादों की तह में जाने की कोशिश करता है तो उसकी आवाज कुछ दूर जाकर ही लुप्त हो जाती है, दावों और वादों की राजनीति के दौर में उठी हुई आवाज थककर स्वत: लुप्त हुई या लुप्त कर दी गई ? एक ओर यह सवाल लोगों के जेहन में गुजरते वक्त के साथ गुजरते रहता है तो दूसरी ओर दावों और वादों की राजनीति फलते फूलते रहती है !

Friday, September 27, 2013

राईट टू रिजेक्ट अर्थात राजनैतिक तानाशाहियों पर अंकुश ?

राईट टू रिजेक्ट अर्थात राजनैतिक तानाशाहियों पर अंकुश !

मैं यह दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन न जाने क्यों मुझे यह यकीन सा महसूस हो रहा है कि यदि आज संसद सत्र चल रहा होता तो हमारे बहुत सारे सांसद सुप्रीम कोर्ट के राईट-टू-रिजेक्ट निर्णय के विरोध में संसद में तूफ़ान उठा देते तथा संसद को शांतिपूर्ण ढंग से चलने नहीं देते, दिन भर के लिए न सही पर कुछक घंटों के लिए संसद स्थगित जरुर करनी पड़ती, और इसके पीछे तूफ़ान उठाने वाले सांसदों का तर्क यह होता कि सुप्रीम कोर्ट कौन होती है क़ानून बनाने वाली, हमें डायरेक्शन देने वाली, हमारे अधिकारों का हनन करने वाली, हमारे अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने वाली ! 

खैर, संसद में उनका आक्रोश जायज भी होता क्योंकि यह उनका ही अधिकार है कि क़ानून कब बनाया जाए, कब संशोधित किया जाए, कब अपनी जरूरतों व लालसाओं के अनुकूल दिशा दी जाए, लेकिन इस बार उनका यह हठी स्वभाव ही मूल वजह बना है जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट को जनभावनाओं के अनुकूल यह निर्णय लेना पडा, सुनाना पडा, वैसे भी राईट टू रिजेक्ट की मांग जनता एक अरसे से कर रही थी जिसे वे अर्थात हमारे प्रतिनिधि जानबूझकर अनसुनी करते आ रहे थे, आज सुप्रीम कोर्ट ने जनता के पक्ष में निष्पक्ष फैसला सुना कर एक एतिहासिक कदम उठाया है, निसंदेह इस एतिहासिक फैसले का पूर्णरूपेण स्वागत होगा, स्वागत होते रहेगा !  

राईट-टू-रिजेक्ट अर्थात 'नन ऑफ़ द अबव' अर्थात उपलब्ध प्रत्याशियों में से कोई नहीं अर्थात नापसंदी पर मुहर लगाने का अधिकार, साफ़ व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो चुनाव मैदान में चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों में से यदि सभी के सभी प्रत्याशी मतदाता को पसंद नहीं हैं तो उन्हें नापसंद कर सकते हैं, राईट-टू-रिजेक्ट का अभिप्राय मतदाता को नापसंदी का अधिकार प्राप्त हो जाना है, लेकिन यह अधिकार कितना लाभकारी होगा इस विषय पर चर्चा अवश्य की जानी चाहिए, होनी चाहिए, जहां तक मेरा मानना है कि राईट-टू-रिजेक्ट लागू होने से देश में कोई राजनैतिक क्रान्ति नहीं आने वाली है, लेकिन हाँ, इससे राजनैतिक दलों की तानाशाहियों व तानाशाही प्रवृत्ति के प्रत्याशियों पर अंकुश जरुर लगेगा !!

Thursday, September 26, 2013

भारत-पाक रिश्तों पर आतंकी साया ?

भारत-पाक रिश्तों पर आतंकी साया !

अगर हम देखेंगे तो विश्व के मानचित्र पर भारत व पाक रूपी देशों के चित्र एक ही दिन उकेरे गए साफ़ साफ़ नजर आ जायेंगे, नजर आयें भी क्यूँ नहीं जब दोनों ही मुल्कों का जन्म एक ही दिन हुआ हो, यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मुल्कों के निर्माण के पूर्व दोनों की फिजाएँ एक थीं, दोनों के खलियान एक थे, दोनों के पंचायती चबूतरे एक थे, दोनों के तीज-त्योहारों पर लगने वाले मंजर एक थे, गर थोड़ा बहुत कुछ अलग था तो इबादत का ढंग व वेश-भूषा अलग थी लेकिन इसके बाद भी दोनों के दिलों की धड़कनें एक थीं, प्रेम की राह एक थी, अमन का सन्देश एक था।  

अब सवाल यहाँ यह उठता है कि मुल्कों के विभाजन अर्थात निर्माण के बाद ऐसा क्या हुआ कि दोनों मुल्कों की सोच व विचारधाराएँ बदल गईं ? आज यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज भारत-पाक रिश्ते अपने आप ही सांप-सीढ़ी के खेल की तरह हो कर रह गए हैं, दोनों ओर से जैसे ही मधुरता की राह में दो-एक चालें चली जाती हैं ठीक वैसे ही आतंकवाद रूपी सांप फुफकारने लगता है तथा एक-दो आतंकी घटना रूपी जहर उगल कर अपना काम कर चला जाता है परिणामस्वरूप दोनों देश पुन: शून्य पर जा पहुंचते हैं, अब यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या भारत-पाक रिश्तों पर सचमुच आतंकवाद साया बन के मंडरा रहा है ? 

इस सवाल के जवाब में ज्यादातर लोगों की राय होगी कि - हाँ, आतंकवाद साया बन कर मंडरा रहा है, लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से इस राय से पूर्णरूपेण इत्तफाक नहीं रखता हूँ, इत्तफाक नहीं रखने की एक छोटी-सी वजह यह है कि हम अर्थात दोनों देश अमन, चैन व मुहब्बत के लिए इतनी कमजोर शुरुवात करते ही क्यूँ हैं कि आतंकी घटनाएँ उनमें बाधक बन कर खड़ी हो जाएँ, हमें एक ठोस व गंभीर शुरुवात करने की जरुरत है जिसे आतंकी डगमगा न सकें, हमारे मंसूबों पर पानी न फेर सकें, यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगा कि आतंकी इतने मजबूत नहीं है कि दोनों मुल्क अपनी अपनी सरहदों के अन्दर इनके जहरीले फन को कुचल न सकें !

खैर, मेरा मानना है कि वह दिन भी आयेगा जब दोनों मुल्क मधुरता, मुहब्बत व अमन के लिए न सिर्फ एक ठोस व गंभीर शुरुवात की नींव रखेंगे वरन उस नींव पर निसंदेह एक मुहब्बत रूपी खूबसूरत इमारत का निर्माण भी होगा, आज दोनों ही मुल्कों को जरुरत है पारदर्शिता व निष्पक्षतापूर्ण सोच व विचारधारा की, एक सकारात्मक व दूरदृष्टिपूर्ण शुरुवात की, लेकिन इस शुरुवात के लिए दोनों ही ओर से जिंदादिल व मुहब्बत पसंद हुक्मरानों की जरुरत है जिनके जेहन में छल व प्रपंच रुपी तरंगे न हों अगर कुछ हो तो अमन व चैन रूपी गुलाब की खुशबू हो, आज हम यही कामना करते हैं कि शीघ्र ही सरहदों पर अमन हो, दिलों में मुहब्बत हो, आमीन !!

Wednesday, September 25, 2013

सजायाफ्ताओं के लिए हमारे प्रतिनिधि इतने रहमदिल क्यों ?


कमाल है, अदभुत ! हमारे जनप्रतिनिधि, हमारी सरकारें सचमुच बहुत बहादुर हैं, बेजोड़ हैं, बेमिसाल हैं, जिनकी क्षत्र-छाया में पिछले कुछेक सालों से भ्रष्टाचार व घोटालों की जो निरंतर झड़ी लगी है वह तो अपने आप में आश्चर्यजनक है, और तो और यह सिलसिला थमने का नाम भी नहीं ले रहा है, आयेदिन कोई न कोई प्रकरण फिर सामने आ जा रहा है, इन भ्रष्टाचार व घोटालों से तंग आकर जब देश का जनमानस जनलोकपाल रूपी सशक्त क़ानून की मांग के लिए उमड़ पड़ा तो उसे भी इन्होंने अपने दांव-पेंचों से तितर-बितर कर दिया।  

और अब जब हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सजायाफ्ताओं की सदस्यता निरस्त करने संबंधी फरमान सुनाया तो संसद में बैठे सभी जनप्रतिनिधियों की फरमान के खिलाफ भौएँ तन गईं, एक दो नहीं वरन सभी जनप्रतिनिधि आनन-फानन में पुन: एकजुट व एकराय हो गए, एकराय होते ही केंद्र में बैठी गठबंधन सरकार ने सभी दलों व सभी प्रतिनिधियों की मंशा के अनुरूप अध्यादेश जारी कर सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया जो फैसला उनकी मंशा व भावनाओं के खिलाफ था। 

इन हालात में, इन परिस्थितियों में, इस दौर में, जब रोज भ्रष्टाचार व घोटालों के प्रकरण प्रकाश में आ रहे हैं, लूट, डकैती, जालसाजी, अपहरण, फिरौती, बलात्कार, ह्त्या, जैसे गंभीर अपराध घटित हो रहे हैं तब जनलोकपाल रूपी सशक्त क़ानून की मांग नहीं सुनी जायेगी तथा सजायाफ्ता लोगों पर अंकुश लगाने का प्रयास नहीं किया जाएगा तो कब किया जाएगा ? अब सवाल यहाँ यह उठ रहा है कि हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि जब हमारी नहीं सुनेंगे व देश के सर्वोच्च न्यायालय की भी अनसुनी कर देंगे तो फिर ये सुनेंगे किसकी ? 

कहीं ऐसा तो नहीं हमारे प्रतिनिधि अभिमानी हो गए हैं ? स्वयं को भगवान समझने लगे हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं वे यह मान बैठे हैं कि हम ही हम हैं, हमारे सिबाय न कोई था, न कोई है, और न कोई रहेगा ? अगर ऐसा है, वे ऐसा सोच रहे हैं तो मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि वे स्वयं ही अपने अपने पैरों पे कुल्हाड़ी मार रहे हैं, खुद ही खुद के पतन के कारण बन रहे हैं, खुद ही खुद के पतन की राह सुनिश्चित कर रहे हैं ? अब तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमारे ज्यादातर प्रतिनिधि सजायाफ्ता हैं या सजायाफ्ता होने की कगार पर हैं, यदि ऐसा नहीं है तो वे सजायाफ्ताओं के मसले पर सजायाफ्ताओं के लिए इतने रहमदिल क्यों हैं ? 

Tuesday, September 24, 2013

आतृप्त ...

जी चाहता है 
ठोक दूँ … दो-चार को … 
पर सोचता हूँ 
दो-चार को ठोकने से क्या होगा ?

क्योंकि - 
जिन्हें ठोकना चाहता हूँ 
उनके जैसे 
दो-चार नहीं, हजारों हैं ??

गर सबको नहीं ठोका तो 
मन नहीं भरेगा 
आत्मा शांत नहीं होगी 
आतृप्त भटकता रहूँगा ???

Monday, September 23, 2013

जालिम ज़माना ...

बड़े जालिम हुए हैं लोग 
जो  
फुटपाथ पे भी  
हमें 
चैन से सोने नहीं देते … 
करें तो क्या करें 
अब 
हम 
इस जालिम जमाने का ?

Sunday, September 22, 2013

निर्दयी दिल्ली ...

रोज हो रहे हैं बलात्कार दिल्ली में 
फिर भी 
न जाने क्यूँ -
सो रही है 
देश की सरकार दिल्ली में ?

करें तो क्या करें 
अब 
हम 
खुद से 
इस ……… निर्दयी दिल्ली का ??

Saturday, September 21, 2013

शिलान्यासी पत्थरों बनाम संभावनारूपी वादों की झड़ी ?

शिलान्यासी पत्थरों बनाम संभावनारूपी वादों की झड़ी ?  

मित्रों, जहाँ तक मेरा मानना है लोकतंत्र का सबसे बड़ा कोई उत्सव है तो वो है चुनाव, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं उत्सव का शुभारंभ नजर आ रहा है, इस उत्सव के शुरुवाती चरण में आजकल शिलान्यासी पत्थरों का खूब शोर है, चहूँ ओर सिर्फ शिलान्यास ही शिलान्यास हो रहे हैं. मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री लगभग सभी अपने अपने स्तर पर लाखों-करोड़ों रुपयों की योजनाओं का शिलान्यास कर रहे हैं, पर सवाल ये है कि चुनाव पूर्व आनन-फानन में हो रहे शिलान्यास अंजाम तक पहुँच सकेंगे या नहीं ?  कहीं ये शिलान्यास चुनाव पूर्व के शिगूफा बन कर न रह जाएँ ? क्योंकि अगर इन्हें अर्थात नेताओं को विकास की इतनी ही चिंता थी तो गुजर रहे कार्यकाल के दौरान ही ये सारे काम संपन्न क्यों नहीं किये गए, यदि किन्हीं कारणों से संपन्न नहीं भी किये जा सके थे तो इनका ठीक चुनाव पूर्व ही शिलान्यास क्यों ? 

हालांकि शिलान्यासी पत्थरों के जवाब में वादेरूपी सौगातों अर्थात घोषणाओं की भी खूब झड़ी लगी हुई है, मेरा अभिप्राय यह है कि विपक्षी दलों के नेता भी सत्ता पक्ष से किसी भी मामले में पीछे नजर नहीं आ रहे हैं, एक ओर जहां योजनाओं के शिलान्यासी पत्थरों का शोर है तो दूसरी ओर "हम ये करेंगे हम वो करेंगे" की झडी ताबड़-तोड़ जारी है, कोई लाखों-करोड़ों की योजनाओं से जनमानस को प्रलोभित करने का प्रयास कर रहा है तो कोई टैक्स माफी, आरक्षण में वृद्धि, फिल्मसिटी का निर्माण, रोजगार, मँहगाई जैसे महत्वपूर्ण संभावनारूपी प्रलोभनों से अपने पक्ष में माहौल बनाने की फिराक में नजर आ रहा है, यहाँ यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि चुनाव पूर्व हो रहे इन धडा-धड शिलान्यासों व संभावनारूपी वादों के पूर्ण होने में संदेह उत्पन्न होना भी लाजिमी है !

खैर, ओवरआल इन दलों व नेताओं के प्रयासों को आलोचना के नजरिये से देखना भी उचित नहीं होगा क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए तथा सत्ता में आने के लिए सभी दल अपने अपने स्तर पर प्रयास करते ही हैं, आखिरकार ये प्रयास भी एक तरह से साम, दाम, दंड, भेद की नीति के ही हिस्से हैं जो पक्ष और विपक्ष में बैठे राजनैतिक दल अपने अपने फायदे के लिए आजमाते हैं, आजमा रहे हैं ! इन सब के बीच यह भी विचारणीय है कि आज देश का जनमानस भी काफी चतुर व चालाक हो गया है वह भी इनके लोक लुभावन क्रिया कलापों से अनभिज्ञ नहीं है, वह भलीभांति जानता है नेताओं की कथनी और करनी का भेद ! वैसे, इसमें दो राय नहीं है कि चुनावी सफ़र में वादों, घोषणाओं, शिलान्यासों का भी अपना अपना अलग महत्व है, फिलहाल सभी चुनावी धुरंधरों को शुभकामनाएँ !!

Thursday, September 19, 2013

जिद ...

तुम ऑन लाइन रहो या ऑफ लाइन हमें क्या 
बस, हलो-हाय ..…….....…… जारी रखना ? 
… 
चलो खुद को बेच दें, अभी कीमत मिल जायेगी अपनी 
नहीं तो, इस शहर में कीमतों पे खरीददारों का जोर है ? 
…  
लो, बोला तो कुछ ऐसा बोला, कि -
न बोलता तो ज्यादा अच्छा होता ?

शहर जाने की जिद न पालें
यहीं रहें और गाँव संभालें ?
गर मैं तेरा गुनहगार हूँ, तो फांसी चढ़ा दे 
पर, झूठी अफवाहों को… तू आग न दे ? 
… 

Tuesday, September 17, 2013

प्रधानमंत्री का पद और लोकतंत्र का गौरव ?

प्रधानमंत्री का पद और लोकतंत्र का गौरव !

लोकतंत्र में जब बड़े बड़े आंदोलनों व जनसमूहों को नजर अंदाज किया जाने लगे तथा भ्रष्टाचार, घोटाले व बलात्कार जैसी घटनाएँ निरंतर होनी लगें तब यह समझ जाना चाहिए कि जनमानस अन्दर ही अन्दर उद्धेलित व आक्रोशित हो रहा है, राजनीति व व्यवस्था परिवर्तन के लिए उमड़-घुमड़ रहा है तथा अपनी इच्छा के अनुरूप व्यवस्था व क़ानून चाह रहा है ! 

लेकिन सवाल ये है कि यदि देश का जनमानस अर्थात दो-तिहाई जनमत राजनैतिक व व्यवस्था परिवर्तन के तौर पर लालूप्रसाद यादव, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, ममता बैनर्जी, मायावती, जयललिता, सोनिया गांधी, नरेन्द्र मोदी या अरविन्द केजरीवाल को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है तथा अपनी इच्छा के अनुरूप व्यवस्था चाहता है तो क्या यह वर्त्तमान में चलित जोड़-तोड़ की नीति व गठबंधनों की नीति से संभव है ?

शायद नहीं, क्योंकि जब तक ये व्यक्तित्व स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेंगे तथा कम से कम 300 सीटों पर चुनाव मैदान में नहीं उतरेंगे तब तक यह कैसे ज्ञात हो पायेगा कि जनता चाहती क्या है, अत: इस सन्दर्भ में मेरी व्यक्तिगत राय तो यही है कि सभी दलों को अपना अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनाव पूर्व ही घोषित करते हुए चुनाव मैदान में उतरना चाहिए ताकि जनता स्वयं अपने पसंद के दल व उम्मीदवार को पूर्णरूपेण बहुमत से चुन सके !

यदि ऐसा नहीं हुआ या देश के समस्त राजनैतिक दल इस सिद्धांत व व्यवहार के साथ चुनाव मैदान में नहीं उतरे या नहीं उतरते हैं तो जनता क्या चाहती है और किसे प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहती है यह तार्किक व सैद्धांतिक तौर पर प्रमाणित नहीं हो सकेगा, और जब तक जनभावनाओं व जनमत के अनुरूप पूर्णरूपेण सरकारें नहीं बनेगीं तथा प्रधानमंत्री के पद सुशोभित नहीं होंगे लोकतंत्र गौरवान्वित नहीं हो सकेगा ! 

अत: लोकतंत्र के गौरव व सम्मान के लिए यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि जोड़-तोड़ की राजनीति व गठबंधन सरकारों पर अंकुश लगे तथा पूर्ण बहुमत से सरकारें बनें तथा प्रधानमंत्री भी एक तरह से जनता की भावनाओं के अनुरूप अर्थात जनमत से ही बनें, यह तभी संभव हो सकेगा जब सभी राजनैतिक दल प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते हुए कम से कम 300 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरें तथा जनता को ही अपनी पूर्णकालिक सरकारें चुनने का अवसर प्रदान करें !

जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राजनीति व व्यवस्था में परिवारवाद, वंशवाद, अवसरवाद, जोड़-तोड़, खरीद-फरोख्त, चाटुकारिता, भय व खौफ का बोलबाला रहेगा तथा कुशल नैतृत्व के अभाव में आयेदिन लोकतंत्र कभी दंगों के नाम पर तो कभी आतंक के नाम पर लहु-लुहान होते रहेगा तथा जनभावनाओं के विपरीत गठजोड़ की सरकारें बनते रहेंगी व छोटे-बड़े-मझोले दल मिलजुल कर अपने अपने स्वार्थों की सिद्धि करते रहेंगे जो स्वच्छ व स्वस्थ्य लोकतंत्र के विपरीत आचरण होगा ! 

गर यह सिलसिला निरंतर चलता रहा, सरकारें बनते रहीं, प्रधानमंत्री बनते रहे तो यह तय है देश का जनमानस उम्मीदों भरी आस से संसद रूपी आसमान को निरंतर तकता रहेगा ! आज का दौर विकास व परिवर्तन का दौर है, निष्पक्षता, पारदर्शिता व स्वतंत्रता का दौर है, अत: मैं व्यक्तिगत तौर पर देश के सभी राजनैतिक दलों से यह आव्हान करता हूँ कि वे नए सिद्धांतों व व्यवहार के साथ चुनाव मैदान में उतरें ताकि जनभावनाओं के अनुरूप अर्थात जनमत के अनुरूप सरकारें बनें, प्रधानमंत्री चुने जाएँ, परिणामस्वरूप लोकतंत्र न सिर्फ मजबूत हो वरन गौरवान्वित भी हो, जय हिन्द !! 

फेसबुक एडिक्ट ...

लघुकथा : एडिक्ट 

दो मित्र अपने अपने ढंग से पिछले सवा घंटे से टाईम पास कर रहे थे तभी एक मित्र ने दूसरे मित्र से कहा - 

यार तुम फेसबुक एडिक्ट हो गए हो, बहुत बुरी बात है ! 

दूसरे ने पहले मित्र के एक हाथ में सुलग रही ग्यारहवी सिगरेट तथा दूसरे हाथ में अधभरे शराब के पांचवे पैग को देखते हुए जवाब दिया -  

एडिक्ट … हाँ यार … सच कह रहे हो !!

Monday, September 16, 2013

मुफलिसी ...

बड़ी अजीबो-गरीब कहानी है, मंजर भी तूफानी है
ऐंसे भी हालातों में,…… हमने लड़ने की ठानी है !
...
उसकी मजार पे, जलता चराग हमने कभी बुझता नहीं देखा
सच ! उसकी रूह भी 'उदय', उसकी तरह ही जिद्दी निकली ?
...
शायद ! अब उसे, समझ में आ गया होगा 'उदय' 
कैसे होते हैं, … संत, … राम, … और बापू ??
न तो वो सूरत बदलेंगे, और न ही घमंड छोड़ेंगे 
दरअसल, वो आज अपनी असल औकात पे हैं ?
दो दिन की मुफलिसी भी उनसे सही नहीं गई 
उफ़ !…… ईमान का सौदा सरेआम कर गए ? 

Saturday, September 14, 2013

अभिशाप ...

आज का नेता 
लोकतंत्र के लिए 
बनते जा रहा है अभिशाप ?
क्योंकि -
वह 
सुबह-शाम 
करते रहता है 
जाति और धर्म का जाप ?? 

Thursday, September 12, 2013

नरेन्द्र मोदी के नाम पर इतना घमासान क्यों ?

नरेन्द्र मोदी के नाम पर इतना घमासान क्यों ! 

आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर लगभग सभी राजनैतिक दलों में अंदरुनी घमासान चल रहा है, सभी दल अपनी अपनी सफलता के लिए अपने स्तर पर उठा-पटक में लगे हुए हैं, इसी क्रम में भाजपा भी, जो वर्त्तमान में विपक्ष की भूमिका में है प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर घमासान के दौर से गुजर रही है ! 

यह घमासान गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की घोषणा को लेकर मचा हुआ है, जहाँ तक मेरा आंकलन है नरेन्द्र मोदी के नाम पर किसी भी भाजपाई को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, और यदि कोई नाराजगी व्यक्त भी कर रहा है तो वह उचित नहीं है, क्योंकि वर्त्तमान भाजपाई कुनबे में ऐसा कोई दूसरा नेता उस कद-काठी का नहीं है जो भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में करिश्माई बढ़त दिला सके ! 

यदि तुलनात्मक द्रष्ट्रीकोंण से भी देखें तो लालकृष्ण अडवानी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी या कोई और, वर्त्तमान दौर में नरेन्द्र मोदी के सामने उन्नीस ही ठहरते हैं, यदि वरिष्ठ नेता अपनी वरिष्ठता का दम यूँ ही भरते रहे तो भाजपा आज जहाँ है वहाँ से आगे जाने की स्थिति में, कम से कम मुझे तो नजर नहीं आ रही है !

लेकिन हाँ, नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगाना एक प्रकार से जुआ खेलने जैसा ही है, लेकिन फिर भी इसे पूर्णरूपेण जुआ खेलना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में विकास के बलबूते अच्छी-खासी ख्याती भी अर्जित की है जिसकी चर्चा न सिर्फ देश में है वरन विदेशों में भी है जो अपने आप में नरेन्द्र मोदी के लिए प्लस प्वाइंट है ! 

इस नाते, नरेन्द्र मोदी नाम का व्यक्तित्व निसंदेह भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में दो-तिहाई बहुमत सिर्फ अपने दम पर दिलवा भी सकता है तो दूसरी ओर अपनी हिंदुत्व की छवी के नाते लुटिया डुबो भी सकता है, … लेकिन, फिर भी, जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत राय है भाजपा को जोखिम उठाना चाहिए, नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए !! 

( नोट :- जिन ब्लॉग / फेसबुक मित्र को यह समसामयिक लेख छापने योग्य प्रतीत होता है वह अपनी पत्र-पत्रिका में निसंकोच छाप सकता है, आभार ! )

अक्सर ...

मेरी रूह को, न चैन मिलता, और न ही सुकून
गर, तेरा हिसाब चुकाए बिना चला गया होता ?

क्या करते, तेरे दर, गली, बस्ती में, हमें आना पडा
बार-बार बे-वफाई के इल्जाम हमसे सहे नहीं जाते ?

ऐंसा सुनते हैं 'उदय', गिरगिटों सा हुनर है उनमें
तभी तो वे अपनी असली पहचान छिपा लेते हैं ?

सच ! अब तू जिद न कर हमें आजमाने की
कई हैं, जो अब तक भूल नहीं पाए हैं हमें ?
...
देख, ज़रा संभल के गुजरना, उनके करीब से
वे आँखों से भी ……… लूट लेते हैं अक्सर ?

शातिर ...

दंगा, दंगे, दंगाई, आपस में लड़ रहे हैं सत्ताई
क्या करें अब हम 'उदय', चहूँ ओर हैं सौदाई ?

गर वो 'उदय', समय रहते अपनी फितरतों से बाज आ गए होते
तो आज, जेल की रोटी ……………........... नहीं खा रहे होते ?

उसके, दिल-औ-जज्बात बड़े शातिर निकले
कल किये वादों से, वो मुकर गए हैं आज ?

हाँ, अब लगभग यह तय हो गया है 'उदय', कि वह भगवान है
वर्ना गायब होने की कला आरोपियों में मुमकिन नहीं लगती ?

इस बार उन्ने, आँखों से गुस्सा बयाँ किया है यारो
अब 'खुदा' ही जाने, क्या गुस्ताखी हुई है हमसे ??

Tuesday, September 10, 2013

बैकुंठ की चाहत ...

आ भी जाती, तो क्या होता, हिचकी ही तो है
कौन सा उन्हें … वो अपने संग लिए आती ?

सच ! हम कैसे उसे धर्मात्मा मान लें 'उदय'
आखिर, बलात्कार का इल्जाम है उस पर ?

सवाल ये नहीं है 'उदय', कि वो कुछ छिपा रहे हैं
सवाल ये है, कि वो ….…… क्यूँ छिपा रहे हैं ?

जब उसने, आते ही ............ मुझे गुरु कहा था 'उदय'
मैं समझ गया था, मुझे अपना चेला बनाने आया है ?

सच ! एक समय, थी तो उन्हें बैकुंठ की चाहत 'उदय'
पर, खुद ही बाहर निकलने को छट-पटा रहे हैं आज ?

Sunday, September 8, 2013

मौसेरे भाई ...

दुःख इस बात का है 'उदय' 
कि - 
अब भी 
वो सुधरने को तैयार नहीं हैं, 
और फिर भी 
न जाने कितने 
उन्हीं पे, उन्हीं लोगों पे 
आस लगाए हैं 
उन्हें ही, तक रहे हैं 
जबकि -
सब जानते हैं 
वे चोर-चोर मौसेरे भाई हैं ?

Saturday, September 7, 2013

स्वभाव ...

लहर का स्वभाव है
गिरना, उठना, बहना, बहा ले जाना
दूर, बहुत दूर, … बहुत दूर
 
फिर लौटना, लौट कर आना
उमड़ना, घुमड़ना …
और फिर, फिर से 
अपने स्वभाव में आ जाना ?

Thursday, September 5, 2013

यार जुलाहे ...

छोटी-छोटी बातों पे भी 
हमने देखा … अड़ते तुझको, 

रोते तुझको, लड़ते तुझको, भिड़ते तुझको 
हार गया, पर हार न मानी, 

हो उद्दण्ड जीत की ठानी 
ठानी तो बस ठानी-ठानी, हार न मानी, 

क्यों बुनता, क्यों रचता है तू … यार जुलाहे 
हर पल, … हर क्षण, … ऐसी कहानी … ?

Wednesday, September 4, 2013

परिवर्तन ...

01 

तू अपनी खुबसूरती पे
इत्ता नाज न कर,
गर तू कहे
तो कुछ कहूँ मैं,
वर्ना,
दिल दुखाना
हमें भी
अच्छा नहीं लगता ??
…  
02

अभी तक तो
हम ढूँढ रहे थे भीड़ में खुद को
अब-जब
तुम कहते हो,  
तो चलो
हम …
ढूंढ लेते हैं खुदी में खुद को ?

03

यदि राजनीति में
अच्छे-सच्चे लोग नहीं आयेंगे,
तो कोई बताएगा
व्यवस्था कैसे बदलेगी ?
व्यवस्था परिवर्तन के लिए
क्या हम, यूँ ही
दम भरते रहेंगे
चीखते-चिल्लाते रहेंगे ???
...

Sunday, September 1, 2013

कमिटमेंट ...

अपराधी, पुलिस, सरकार, तीनों हैं संशय में यारो
सच ! अब 'खुदा' ही जाने कौन किस्से डर रहा है ?

अब तो सिर्फ … आसा-औ-राम … का है भरोसा
वर्ना, जेल की कालकोठरी में, घुटेगा दम उसका ?

दान, दया, दवा, दारु, औ दर्द की दुकां है उनकी
वोट भी उनका है और है सरकार भी उनकी ??

आज जिनकी जुबां पे, छिलने के निशान नहीं हैं 'उदय'
हम कैसे मान लें, उन्ने कभी इंकलाबी नारे लगाये हैं ?

अब तुम, उनकी मजबूरी भी तो तनिक समझो यारो
सच ! वे दुम हिलाने का कमिटमेंट कर चुके हैं पहले ?