Thursday, October 31, 2013

धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग ?

धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग !

यदि कोई राजनैतिक दल या कोई व्यक्ति विशेष किसी धर्म विशेष के सहारे सत्ता प्राप्त करने का स्वप्न देखेगा या सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करेगा तब भी वह अपने मंसूबों को पूरा कर पाने में सफल नहीं हो पायेगा क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मामले में आज हमारे देश के लगभग सभी धर्मों के लोग जागरुक हो गए हैं, परिपक्व हो गए हैं, आज वे भलीभांति समझते हैं कि कौन उन्हें वोटों की नीयत व भावना से अपनी ओर खीचने व मिलाने का प्रयास कर रहा है। आज हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, सभी धर्मों के लोग जानते, बूझते व समझते हैं कि वर्त्तमान दौर में कदम कदम पर राजनीति स्वार्थ से ओत-प्रोत है, अगर कोई उन्हें लुभाने का प्रयास करेगा तो वे तत्काल समझ जायेंगे, वैसे भी जिस प्रकार सच व झूठ चेहरे पर झलकता हुआ साफ़ साफ़ दिखाई देता है ठीक वैसे ही नेताओं के चेहरे पर स्वार्थगत धर्मनिरपेक्षता के भाव भी साफ़ साफ़ दिखाई देने लगते हैं। मन के भावों को समझने के लिए बात सिर्फ आमने सामने की ही नहीं है टेलीविजन पर, मंचों पर, सभाओं में भी जब कोई धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ने अथवा पढ़ाने की कोशिश करता है तब भी यह समझ में आ जाता है कि वह क्या बोल रहा है और क्यों बोल रहा है ? आज देश में धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वालों की उतनी जरुरत नहीं है जितनी जरुरत है धर्मनिरपेक्षता समझने वालों की, आज जो भी राजनैतिक दल अथवा राजनैतिक व्यक्तित्व इस बात को समझते-बूझते हुए आचरण करेगा वह निसंदेह सराहा जाएगा। कदम कदम पर अगर यूँ ही राजनैतिक दल व उनके आका मनगढ़ंत व दिखावे का ढोंग करते रहे व रचते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब लोग इन्हें देखकर ही मुंह मोड़ लें अथवा मुंह मोड़ कर चले जाएं ?  

आज धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों अर्थात विषयों का राजनैतिक फायदों के लिए जिस ढंग से उपयोग व दुरुपयोग हो रहा है वह अत्यंत ही चिंता का विषय है, यह चिंता आमजन तक सीमित नहीं रहनी चाहिए वरन यह चिंता उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तित्वों के जेहन तक भी होनी चाहिए, अन्यथा इन शब्दों का दुरुपयोग करने वाले कहीं उस कगार तक न पहुँच जाएँ जहां से लोकतंत्र का अस्तित्व खतरे में नजर आने लगे, कहीं ऐसा न हो हमारा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र स्वमेव ही शनै: शनै: साम्प्रदायिक रूप ले ले। वजह ? वजह सिर्फ एक है, वो है, इन शब्दों अर्थात विषयों का निरंतर बढ़ता दुरुपयोग, आज के दौर में कभी धर्मनिरपेक्षता तो कभी अल्पसंख्यक शब्दों का कुछ इस तरह दुरुपयोग हो रहा है कि देखते व सुनते ही खून खौलने लगता है। खासतौर पर इन विषयों का दुरुपयोग राजनैतिक दल व राजनैतिक व्यक्तित्व अपने फायदे अर्थात वोट बैंक के लिए मौके-बेमौके भरपूर कर रहे हैं, और तो और आज के दौर के ज्यादातर राजनैतिक लोग लगभग हर क्षण इन शब्दों के उपयोग व दुरुपयोग के माध्यम से फ़ायदा उठाने की फिराक में रहते हैं, वे इस बात से भी निष्फिक्र रहते हैं कि भले चाहे उनके इस प्रयास के फलस्वरूप धार्मिक सौहार्द्र व भाईचारा ही क्यों न संकट में पड़ जाए ? वे इस बात से भी निष्फिक्र रहते हैं कि भले चाहे उनके स्वार्थपूर्ण कृत्य के परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक हिंसा घटित होकर शान्ति भंग ही न क्यों हो जाए ? वे इस बात से भी अनभिज्ञ हो जाते हैं कि जिस भाईचारे के निर्माण में वर्षों लगते हैं वह पल दो पल में ही क्यूँ न ख़त्म हो जाए ? सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी व अपने वोटों की चिंता रहती है !

आज के दौर के एक-दो नहीं वरन ज्यादातर राजनैतिक दल व राजनैतिक व्यक्तित्व कदम कदम पर अपने राजनैतिक हितों के लिए धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों अर्थात भावों को तोड़-मरोड़ कर परिभाषित करने से भी बाज नहीं आते हैं, बाज नहीं आ रहे हैं ! इन विषयों पर चर्चा करने के पीछे मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि कहीं किसी दिन लोकतंत्र खतरे में न पड़ जाए ? कभी कभी तो मुझे ऐसा भी प्रतीत होने लगता है कि धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों से ही तो कहीं साम्प्रदायिक शब्द का जन्म नहीं हुआ है ? बड़े अजीबो-गरीब हालात हैं अपने देश में, जब एक ढंग से हिंदुत्व की बात होती है तो उसे साम्प्रदायिकता का नाम दे दिया जाता है, और ठीक इसके विपरीत जब उसी ढंग से जब इस्लाम की बात होती है तो उसे धर्मनिरपेक्षता का नाम दे दिया जाता है। बड़ी अजीबो-गरीब कहानी है एक ही ढंग व एक ही बात के दो अलग अलग भाव व अर्थ परिभाषित कर दिए जाते हैं, जबकि जहां तक मेरा मानना व समझना है कि न तो यहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हैं और न ही मुसलमान, फिर भी जब धर्मनिरपेक्षता की बात आती है तो परिभाषाएं अलग अलग नजर आती हैं, ऐसा क्यों है ? किसलिए है ? इसके जवाब अपने आप में पहेली से कम नहीं हैं, यह उल्झन शायद तब तक रहे जब तक धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक शब्दों की परिभाषा नए सिरे से परिभाषित न कर दी जाए ? यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग होते रहेगा, राजनैतिक लोग अपने अपने स्वार्थों व हितों के लिए अपने अपने ढंग से धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते रहेंगे तथा देश का जनमानस कभी इधर तो कभी उधर मुंडी उठा-उठा कर देखता रहेगा।  

इसके साथ साथ एक समस्या और भी है, जो सड़क पर है, गलियों व मोहल्लों में है, प्रत्येक गाँव व शहर में है, धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय यह भी नहीं है कि लोग धार्मिक परम्पराओं व संस्कारों को धार्मिक उन्माद में बदल दें, मुझे आज यह कहने में तनिक संकोच जरुर हो रहा है लेकिन फिर भी मैं कहने से हिचकिचाऊंगा नहीं कि आज के दौर में आयेदिन हम सडकों पर देखते हैं कि हमारे लोग, हमारे अपने लोग धार्मिक परंपराओं व संस्कारों का आयोजन बहुत बड़े पैमाने पर करने लगे हैं, बड़े पैमाने पर आयोजन करने के पीछे उनका मकसद कहीं न कहीं अपनी ताकत दिखाना होता है, अब आप सोच सकते हैं कि जब आयोजनों का उद्देश्य ताकत दिखाना हो जाए, बल प्रदर्शन करना हो जाए तब संस्कार व परम्पराएं कितनी मर्यादित होंगी ? यह कहते हुए मुझे दुःख व संकोच दोनों हो रहा है कि आजकल लोग परम्पराओं व संस्कारों के आयोजनों की आड़ में उन्मादी हो गए हैं, उन्मादी होते जा रहे हैं ? धार्मिक संस्कारों व परम्पराओं की आड़ में घातक व जानलेवा अस्त्र-शस्त्रों का खुलेआम प्रदर्शन एक तरह से बल का प्रदर्शन ही है, इस तरह के आयोजन किसी भी दृष्टिकोण से न तो सराहनीय हैं और न ही अनुकरणीय। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि इस तरह के आयोजनों को धर्मनिरपेक्षता की आड़ में जो स्वायत्तता मिल रही है वह स्वायत्तता ही इन आयोजनों के उन्मादी होने की वजह बन रही है। अक्सर ऐसे आयोजन धार्मिक सौहार्द्र को बढ़ावा न देकर भय के वातावरण का निर्माण कर रहे हैं। जहां तक मेरा मानना है कि अब वह समय आ गया है जब इन विषयों पर गम्भीर चिंतन-मनन हो, आज धर्मनिरपेक्षता व अल्पसंख्यक ऐसे दो संवेदनशील विषय हो गए हैं जिन पर संसद में नए सिरे से चर्चा की जाकर नई परिभाषा परिभाषित करने की आवश्यकता है, अन्यथा ये विषय कभी भी लोकतंत्र को खंडित कर सकते हैं !

Wednesday, October 30, 2013

काबिले तारीफ़ ...

हुजूर … 
एक बार क़ुबूल तो करें 
सलाम हमारा 

हम 
आज अजनबी सही 
गैर सही 

पर 
हुनर के पारखी हैं 
जौहरी हैं 

तेरा हुश्न … 
अदाएं 
सच ! काबिले तारीफ़ हैं !!

कविताएँ …

तुम कहो तो … 
बस 
एक बार कह के तो देखो 
गर 
मैं न बन गया कवि 
तो कहना !

लानत होगी … 
गर 
मैं न लिख सका 
दो-चार … कविताएँ … 
तुम पर … 
तुम्हारी सादगी पर … !!

Tuesday, October 29, 2013

खेल जारी है …

लो, आज फिर 
एक कलाकार चला गया 
फिर भी 
खेल जारी है 
खेल जारी रहेगा 

न पर्दा गिरेगा 
न उठेगा 
न कभी मंच खाली होगा 
न खाली रहेगा 
तालियाँ बजते रहेंगी 

अनवरत 
किस्से, कहानी, कवितायें … 
लिखी जाती रहेंगी 
पढ़ी जाती रहेंगी 
खरीदी व बेची जाती रहेंगी 

एक कलाकार … 
कल गया था 
एक आज गया है 
कल फिर 
कोई एक चला जाएगा … !

हंसी … 
मजाक … 
ठहाके … 
तालियाँ … मौन … 
खेल जारी है … जारी रहेगा !!

Monday, October 28, 2013

बददुआ ...

बस तुम एक बार देखकर तो देखो 
गर नजर न ठहर जाए तो कहना !
… 
अब तुम, इस तरह भी न मिला करो 
कि लगे ऐसे दो अजनबी मिल रहे हैं !
… 
गीदड़ भभकियों की तरह मत भभका करो 
कहीं, डरे हुए भी …..…… न डरें तुम से ?
… 
बस एक बार कह के देख लो 
फिर, यकीं हो जाएगा खुद पे ? 
… 
किसी का दिल इतना भी मत दुःख जाए यारो 
कि - उसकी हरेक धड़कन से बददुआ निकले !
… 

Sunday, October 27, 2013

खुद-ब-खुद ...

अभी तो शुरू ही की हैं 
हमने 
लिखना कविताएँ 
देखना 
जब 
अच्छा लिखने लगेंगे 
खुद-ब-खुद 
हम छपने भी लगेंगे ?

Saturday, October 26, 2013

भेद ...

ये … 
वो चिड़िया है 'उदय' 
जो 
आजकल 
सिर्फ, 
उसी डगाल पे 
दिखती है, बैठती है  
जहां 
आम और ख़ास में 
कोई भेद नहीं होता ? 

Thursday, October 24, 2013

साम्प्रदायिक हिंसा बिल ही क्यों, राजनैतिक हिंसा बिल क्यों नहीं ?

साम्प्रदायिक हिंसा बिल ही क्यों, राजनैतिक हिंसा बिल क्यों नहीं !

साम्प्रदायिक हिंसा बिल ही क्यों, राजनैतिक हिंसा बिल क्यों नहीं ? आज कौन नहीं जानता है कि ज्यादातर हिंसाओं व दंगों के पीछे राजनैतिक पृष्ठभूमि होती है, राजनैतिक समीकरण होते हैं, राजनैतिक इरादे होते हैं, राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं होती हैं ? यदि आज हम साम्प्रदायिक हिंसा की तह में जाने की कोशिश करेंगे तो अंत में हमें कठोर व ठोस राजनैतिक धरातल ही मिलेगा ? अगर आज हम गौर करें, गंभीर चिंतन-मनन करें तो देश में हुए अब तक के तमाम दंगों में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में राजनीति पाँव पसारे हुए जरुर मिल जायेगी ?  

जब हम जानते हैं, मानते हैं, महसूस करते हैं, तो फिर कान को घुमा-फिरा कर पकड़ने की जरुरत क्या है, सीधे-सीधे कान को क्यों नहीं पकड़ते अर्थात राजनैतिक हिंसा बिल पर चर्चा क्यों नहीं करते, क़ानून क्यों नहीं बनाते ? गर, एक बार आज हम ठोस व सकारात्मक कदम उठा लें तो फिर देखें किसकी मजाल होती है दंगों व हिंसा की ओर रुख करने की ? आज हमें, हम सब को, हमारी सरकारों को अत्यंत गंभीर रूप से चिंतन-मनन करना चाहिए तथा एक ऐसा क़ानून बनाना चाहिए जिसके अस्तित्व में आने के साथ ही लोगों के दिलों-दिमाग से हिंसा व दंगों का भूत अपने आप उतर जाए।  

अगर आज हम ढीले पड़ गए तो दिल और दिमाग को दहला देने वाली हिंसात्मक घटनाएँ होते रहेंगी, दंगे-फसाद होते रहेंगे, असहाय, निर्दोष व कमजोर लोग मरते रहेंगे, और हम यूँ ही निरंतर दुःख व संवेदना व्यक्त करते रहेंगे। जहां तक मेरा मानना है कि आज भी ढेरों क़ानून हैं जो हिंसा व दंगों पर प्रभावी हैं किन्तु उनका क्रियान्वयन अपने आप में सवालिया है, यहाँ मेरा अभिप्राय क़ानून का माखौल उड़ाना नहीं है वरन उसके क्रियान्वयन की सजगता की ओर इशारा करना मात्र है, सीधे व स्पष्ट शब्दों में मेरा अभिप्राय यह है कि क़ानून का क्रियान्वयन जितना निष्पक्ष व पारदर्शी होगा क़ानून उतना ही ज्यादा मजबूत व प्रभावी होगा। 

जहां तक मेरा मानना है अर्थात मुझे प्रतीत होता है कि वर्त्तमान दौर में हमारे देश में साम्प्रदायिक हिंसा के हालात लगभग नहीं के बराबर हैं, और यदि कहीं हैं भी तो बहुत ही कम हैं, ठीक इसके विपरीत राजनैतिक हिंसा के हालात तो कदम कदम पर दिखाई देते हैं और इसकी मूल वजह आपसी सत्ता रूपी राजनैतिक प्रतियोगिता है। ऐसा कोई दिन नहीं है, ऐसा कोई गाँव या शहर नहीं है जहां आयेदिन राजनैतिक टकराव के हालात नजर नहीं आते ? राजनैतिक रस्साकशी व सत्तारुपी महात्वाकांक्षाओं के कारण घर, परिवार, गलियों, मोहल्लों, गाँव, शहर, लगभग सभी जगह देखते ही तनावपूर्ण हालात नजर आ जाते हैं। 

आयेदिन हो रहे राजनैतिक विरोध स्वरूप नेताओं के पुतला दहन के आयोजन, गाँव व शहर बंद के आयोजन, काले झंडे दिखाने के आयोजन, मांग व विरोध स्वरूप बल प्रदर्शन के आयोजन, रेल रोको आयोजन, चक्काजाम, इत्यादि ऐसे ढेरों राजनैतिक कार्यक्रम हैं जिनमें या जिनके दौरान हिंसात्मक घटनाएँ देखी जा सकती हैं, इस दौरान होने वाली हिंसात्मक घटनाओं के स्वरूप छोटे न होकर अक्सर विशाल ही देखे गए हैं तथा जिनके परिणामस्वरूप लाखों व करोड़ों की व्यक्तिगत व राष्ट्रीय संपत्ति आगजनी, लूटपाट व तोड़फोड़ के द्वारा स्वाहा हो जाना बेहद आम है। और तो और इस तरह के ज्यादातर राजनैतिक घटनाक्रम साम्प्रदायिक हिंसा के कारण भी बनते हैं।  

अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा देखा गया है, अक्सर जांच के निष्कर्षों पर यह महसूस किया गया है कि ज्यादातर मामलों में साम्प्रदायिक हिंसा की पृष्ठभूमि में राजनीति व राजनैतिक स्वार्थ कारण बने हैं ? यदि ऐसा हुआ है, ऐसा हो रहा है तो यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के लिए बेहद खतरनाक है, इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना तो यह है कि आज के बदलते परिवेश में, संवेदनशील हालातों में, धर्मनिरपेक्षता व लोकतंत्र की मजबूती के नजरिये से साम्प्रदायिक हिंसा बिल के स्थान पर राजनैतिक हिंसा बिल पर बहस होनी चाहिए, राजनैतिक हिंसा व दंगों की रोकथाम के लिए एक सशक्त क़ानून बनना चाहिए ?

Wednesday, October 23, 2013

अचानक ...

एक दिन, एक शाम 
राह में  
वो मिले, मिलते रहे 

फिर 
अचानक 
गायब हो गए 

शायद 
कोई और 
मिल गया हो उन्हें ?

Tuesday, October 22, 2013

मसक्कत ...

हम ज़िंदा लोग हैं 'उदय', तब ही तो हिल-डुल रहे हैं 
वर्ना, क्या देखा है किसी ने कभी मुर्दों को हिलता ?
… 
'खुदा' जाने इतनी मसक्कत क्यूँ हुई है आज उनसे 
जिन्हें, कभी, हम, फूटी कौड़ी भी सुहाये नहीं थे ??
… 
हमसे मिले हो तुम कुछ अजनबी की तरह 
क्या तहजीब भूल गया है आज हुश्न तेरा ? 
… 
ज़रा फासले से मिला करो 
भ्रम, मिट जाएगा सारा ? 
… 
क़त्ल से, मंसा तो पूरी हो गई उसकी 'उदय'
पर, मुल्क के......... सपने अधूरे रह गए ?
...

टेलीफोनिक कविता ...


हैलो … 
हाँ  … 
हाँ  … 
हूँ  … 
हाँ  … 
कौन  … 
कैसे  … 
कब  … 
ओह  … 
उफ्फ …  
हूँ  … 
हाँ  … 
हाँ, प्रणाम !

Sunday, October 20, 2013

जुगाड़ ...

कविताएँ तो मैं भी लिखता हूँ 
बस, मंच पर नहीं पढ़ता !

क्यों ? 
पढो, किसने रोका है ??

भईय्या, …  
अपनी उतनी जुगाड़ नहीं है !!

Friday, October 18, 2013

एक चिट्ठी अरविन्द केजरीवाल के नाम ...

एक चिट्ठी अरविन्द केजरीवाल के नाम 

अरविन्द केजरीवाल जी, 
जय हिन्द 

कल आपकी अर्थात आम आदमी पार्टी की चुनाव सर्वे सम्बन्धी प्रेस कान्फ्रेंस पर अचानक नजर पडी, नजर पड़ते ही यह सोचकर थोड़ा भौंचक सा हुआ कि ये क्या हो रहा है अर्थात आप क्या कर रहे हैं ? मुझे इस प्रश्न का कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिला इसलिए सीधा आपको चिट्ठी लिखकर पूछ रहा हूँ कि आप बताएं चुनाव सर्वे सम्बन्धी प्रेस कान्फ्रेंस का क्या औचित्य था, क्या नजरिया था, आप क्या सन्देश देना चाहते थे ? सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहूं तो मुझे आपसे व आपके थिंक टेंक ( जिसमें योगेन्द्र यादव जी भी शामिल हैं ) से यह उम्मीद नहीं थी। 

कहीं ऐसा तो नहीं आप भी कांग्रेस, भाजपा व अन्य दूसरी पार्टियों की तरह 'अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना' चाहते थे ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्यों आप उनकी राह चल रहे हैं, कल की प्रेस कांफ्रेंस देखकर कुछ पल को मुझे लगा कि आपने भी बेख़ौफ़ उनकी राह पकड़ ली है ? क्योंकि वे तो आयेदिन 'अपने मुंह मियां मिट्ठू' बनने का प्रयास करते ही रहते हैं, यदि आज उनसे पूछा जाए तो वे अर्थात भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, इत्यादि पांच मिनट की प्रेस कांफ्रेंस में यह सिद्ध कर देंगे कि वे कितने अच्छे हैं, कितने सच्चे हैं, कितने सही हैं, फिर हकीकत भले चाहे कुछ और निकले !

मुद्दे की बात ये है, मुझे ऐसा लगता है कि आप राजनीति में राजनीति करने के मकसद से नहीं उतरे हैं वरन समाजसेवा के मकसद से उतरे हैं, कहीं मैं गलत तो नहीं हूँ ? यदि मैं गलत हूँ तो फिर कोई बात नहीं, कल आपने प्रेस कांफ्रेंस लेकर जो किया वो अच्छा किया ! और अगर मैं सही हूँ कि आप समाजसेवा व व्यवस्था परिवर्तन के इरादे से राजनीति में उतरे हैं तो कल आपका चुनाव सर्वे रूपी प्रेस कांफ्रेंस का कदम उचित नहीं है, वह कदम सीधे व स्पष्ट तौर पर 'अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने' की ओर इशारा कर रहा है, मुझे भविष्य में आपसे इस तरह की नकारात्मकता की उम्मीद नहीं है। 

खैर, एक-दो छोटी-मोटी चूक हर किसी से संभव हैं, लेकिन जो लोग इस तरह की चूकों की पुनरावृति नहीं करते हैं वे निसंदेह अपनी मंजिल को पाते हैं, मुझे आशा और विश्वास दोनों है कि आप बहुत ही जल्द अपनी मंजिल पर होंगे, व्यवस्था परिवर्तन के जिस सपने को लेकर आप आगे बढ़ रहे हैं वह शीघ्र साकार हो, यही मेरी भी ईश्वर से प्रार्थना है। जिस प्रकार का जनसमर्थन दिल्ली की जनता आपको दे रही है उसके लिए दिल्ली की जनता निश्चिततौर पर बधाई की पात्र है, इस पत्र के ही माध्यम से मैं दिल्ली की जनता से अपील करता हूँ कि वे 'आप' को पूर्ण बहुमत प्रदान करें। 

अंत में, मैं यह भी जरुर कहना चाहूंगा कि 'आम आदमी पार्टी' की निष्पक्षता व पारदर्शिता की आज जितनी भी तारीफ़ की जाय वह कम ही होगी, आपके एजेंडे :- 1- सशक्त जनलोकपाल / लोकायुक्त क़ानून की स्थापना, 2- राजनीति से दागी व आपराधिक छबि के लोगों को परे रखना, 3- निष्पक्षता व पारदर्शिता अर्थात राजनैतिक दलों को आरटीआई के दायरे में रखना, ये ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें देश का जनमानस साकार होते देखना चाहता है, आप सफल हों, मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। 
धन्यवाद, जय हिन्द 

एक आम आदमी

आज देश को देशी लोगों के शासन की जरुरत है ?

आज देश को देशी लोगों के शासन की जरुरत है ! 

कभी कभी मेरे जेहन में बड़ी अजीबो-गरीब बातें उमड़ पड़ती हैं जिनसे स्वयं मैं भी हतप्रभ हो जाता हूँ, ठीक उसी प्रकार ये बातें भी उमड़ पडी हैं जिनका मैं यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, आप सोच रहे होंगे कि यह कैसा शीर्षक है अर्थात यह कैसा अजीबो-गरीब सवाल है कि आज देश को देशी लोगों के शासन की जरुरत है ! पर मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह एक ऐसा सवाल है जिसमें स्वत: जवाब भी शामिल है। मित्रों, यह सवाल नहीं है वरन सिर्फ एक मशवरा है, मशवरे से मेरा अभिप्राय यह है कि आज देश को ऐसे लोगों के शासन अर्थात नेतृत्व की जरुरत है जो पूर्णत: देशी हों अर्थात ऐसे सत्ताधारी जिन्होंने न सिर्फ देश में जन्म लिया हो वरन देश में शिक्षा-दीक्षा भी ली हो, जो देश की संस्कृति व परम्पराओं से परिचित हों, यहाँ परिचय का अभिप्राय टेलीविजन पर देखकर या पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर जानने व समझने से नहीं है वरन एक ऐसे परिचय से है जो रु-ब-रु हुआ हो, ठीक वैसा ही जैसा खेत में उतरने से पाँव में मिट्टी लगने से होता है, कुए से पानी निकाल कर पीने से होता है, नदि में डुबकी लगाकर नहाने से होता है, होली के समय रंग-गुलाल लगने से होता है, ईद के समय एक-दूसरे से गले लगने व सेंवई खाने से होता है, गुरुद्वारे में माथा टेकने से होता है, जो सड़क पर खड़े होकर गोल-गप्पे खाने से होता है, इत्यादि ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जिन्हें या जिनका अनुभव सिर्फ रु-ब-रु ही संभव है।  

यह कहते हुए मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि आज मैं न सिर्फ देख रहा हूँ वरन महसूस भी कर रहा हूँ कि आज देश में ज्यादातर ऐसे लोगों का शासन है अर्थात ऐसे लोग सत्ता में हैं अर्थात ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द सत्ता का संचालन है जो विदेशों में पढ़े-बड़े हैं, ऐसे लोग जो न सिर्फ विदेशों में पढ़े-बड़े हैं वरन जिन्होंने सिर्फ विदेशी संस्कृति को ही देखा व जाना है, जिन्होंने सिर्फ वेलेंटाइन डे, हैप्पी न्यू ईयर व वीकेंड जैसे चलनों को ही जाना व भोगा है। ऐसे लोग जो होली को हुड़दंग समझते हों, जो गरीबी को अभिशाप समझते हों, देशी संस्कारों व परम्पराओं को बेफिजूल समझते हों, तब तो ऐसे लोगों से मिल गया हमें सुशासन ? अब जब ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता का संचालन है जो अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी हैं तो फिर भला वे देशीपन को कैसे समझेंगे ? जिन्होंने देशीपन अर्थात गाँव, गलियों, खेतों, खलियानों, नदियों, कुओं, पंचों, पंचायतों, बैलगाड़ियों, बसों, रेलगाड़ियों, धूप, छाँव, इत्यादि को न देखा हो और न ही भोगा हो उनसे हम यह कैसे आशा कर सकते हैं कि वे देश को देशी शासन दे पायेंगे ? यह कैसे संभव हो पायेगा कि जो लोग सूट-बूट व टाई की संस्कृति में बड़े हुए हैं वे देशी टोपी, पगड़ी, गमछे, लुंगी, धोती-कुर्ते, इत्यादि के चलन व उनकी महत्ता को समझ पायें व उन्हें उनके अनुकूल महत्त्व व सम्मान दे पायें ? 

जी हाँ, न तो हम उनसे देशीपन की आशा कर सकते हैं और न ही वे हमारी आशाओं के अनुरूप देशी शासन दे पाने में सफल हो सकते हैं। ऐसे में, सुशासन की कल्पना हमारे लिए एक बेईमानी से ज्यादा कुछ नहीं है ? खैर, दोष किसी न किसी का तो जरुर है, कहीं न कहीं तो जरुर है, हम में है, व्यवस्था में है, शासन में है, चुनाव प्रक्रिया में है, या फिर हमारे संविधान में है ? ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब एक-दो दिन में मिलना मुश्किल है, एक-दो लोगों के साथ चर्चा-परिचर्चा पर भी मिल पाना मुश्किल है, इन सवालों के जवाबों के लिए हमें बड़े पैमाने पर एकत्रित होने की जरुरत है, चिंतन-मनन की जरुरत है, निष्कर्षों पर पहुँचने की जरुरत है, कठोर निर्णयों की जरुरत है। यदि आज हम सुशासन की जरुरत महसूस कर रहे हैं तो हमें निसंदेह एक कठोर राह पकड़नी होगी अन्यथा देश में देशी शासन मुश्किल है, हमारे अनुकूल शासन मुश्किल है, यदि हम वर्त्तमान शासन को देशी समझ रहे हैं तो यह एक मनगढ़ंत व दिखावटी कल्पना से ज्यादा कुछ भी नहीं है। आज जरुरत है खुद के जागने की व जनमानस को जगाने की, यदि अब भी हम नहीं जागे और कठोर निर्णय की दिशा में नहीं बढे तो आजादी और गुलामी का फर्क हम कभी नहीं समझ पायेंगे, आजादी व गुलामी का फर्क हमेशा पहेली बना रहेगा, यह तो वही बात हुई कि जन्म से अंधे के सामने कैसा अन्धेरा और कैसा उजाला ? अब यह सवाल मैं यहीं आपके लिए छोड़े जा रहा हूँ कि हम कब जागेंगे, कब आजाद होगें, कब देशी सुशासन पायेंगे ? 

Tuesday, October 15, 2013

राहुल गांधी कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व की ओर अग्रसर ?

राहुल गांधी कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व की ओर अग्रसर !

जहां तक मुझे लग रहा है कि राहुल गांधी को लोग बहुत हल्के में ले रहे हैं जबकि सच्चाई ये है कि वे निरंतर राजनैतिक परिपक्वता की ओर अग्रसर हैं, राहुल गांधी न तो पप्पू है, न ही बच्चा है, और न ही उतना नासमझ है जितना समझ रहे हैं लोग। आज भाजपा, सपा, बसपा, या अन्य वो राजनैतिक दल जो राहुल गांधी पर तरह-तरह की हास्यपूर्ण चुटकी लेने से बाज नहीं आते हैं, बाज नहीं आ रहे हैं, दरअसल ऐसे लोग एक प्रकार की राजनैतिक मांसिक कुंठा के शिकार हैं, सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो आज उन्हें राहुल गांधी की परिपक्वता हजम नहीं हो रही है जिसकी वजह से वे ऊल-जुलूल टिप्पणी कर रहे हैं। राहुल गांधी को मैं भी पिछले पांच-सात सालों से देख व सुन रहा हूँ, पहले के राहुल गांधी व आज के राहुल गांधी में जमीन आसमान का अंतर देखते ही नजर आ जा रहा है, आज मंच पर उनका बॉडी लेंगवेज देखते ही बनता है, आज वो जिस मुखरता के साथ वक्तव्य देते नजर आते हैं वह अपने आप में उनकी राजनैतिक परिपक्वता की ओर इशारा है, एक संकेत है कि वे निरंतर एक प्रभावशाली व आकर्षक राजनैतिक व्यक्तित्व के निर्माण की ओर अग्रसर हैं। अगर, फिर भी, ये सब देखने व सुनने के बाद उनके विरोधी उन्हें पप्पू, बच्चा, या नासमझ कह कर संबोधित कर रहे हैं तो मुझे उनकी समझदारी व नासमझदारी दोनों पर तरस आ रहा है। मैं आज कोई सील-सिक्का लगाकर या सीना ठोककर यह दावा नहीं कर रहा हूँ कि मेरा आंकलन सौ-टका खरा ही उतरेगा, लेकिन मेरा अनुमान है कि वह दिन दूर नहीं जब राहुल गांधी में हम एक समझदार व दूरदर्शी राजनैतिक व्यक्तित्व को रु-ब-रु देखें। आज जो झलक मुझे राहुल गांधी में दिखाई दे रही है वह निसंदेह भविष्य के एक कुशल राजनैतिक विकास पुरुष से मिलती जुलती सी है। लेकिन अन्य लोगों की तरह मैं भी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हूँ कि ये तो समय ही जानता है कि काल के गर्भ में क्या छिपा है।  

आज मेरा राहुल गांधी पर चर्चा करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि राहुल गांधी आज के दौर के युवा राजनैतिक व्यक्तित्वों में से एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो काफी समझ-बूझ के साथ धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं, न तो उनमें सत्ता की हब्सियों जैसी भूख दिखाई देती है और न ही वो जल्दबाजी जो आज के दौर के वरिष्ठ से वरिष्ठ नेता में बखूवी देखते ही नजर आ जाती है। जिस बात से आप सभी भलीभांति परिचित हैं उस बात का जिक्र में तनिक हिचक के साथ कर रहा हूँ, जरुरी है सिर्फ इसलिए चर्चा कर रहा हूँ कि राजनीति की बिसात पर कोई भी चीज निश्चित व स्थिर न कभी रही है और न ही कभी रहेगी, उतार-चढ़ाव व हार-जीत तो राजनीति के हिस्से हैं, कभी कोई जीतते जीतते हार भी जाता है तो कभी कोई हारते हारते जीत भी जाता है, इस तरह के उतार-चढ़ाव राजनीति में बेहद आम हैं, आज की राजनीति का केंद्रबिंदु अगर कुछ है तो सत्तारुपी कुर्सी है, जीत-हार है, आज हर कोई, हर पार्टी, सिर्फ इस जुगत में रहती है कि किसी न किसी तरह वह चुनाव जीत जाए और ऐन केन प्रकारण सत्ता रूपी परचम लहरा सके। इस हार-जीत के खेल में आज न तो कांग्रेस पीछे है और न ही भाजपा, और तो और 5, 10, 20, 30, 40, 50 सीटों पर जीतने वाली पार्टियां भी सत्तारुपी हार-जीत के खेल में कांग्रेस व भाजपा की भाँती कदम कदम पर नजर आ रही हैं, जो एक दूसरे के सामने सीना व ताल ठोकने से भी बाज नहीं आती हैं। सपा, बसपा, जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी, लेफ्ट, तृणमूल कांग्रेस, बगैरह बगैरह के नेता भी आज प्रधानमंत्री पद की दौड़ में दौड़ते नजर आ जाते हैं। अब जब राजनैतिक दौड़ का प्रमुख उद्देश्य सत्ता हासिल करना व किसी न किसी तरह प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने तक सीमित रह गया हो तब कुशल व दूरदर्शी राजनैतिक व्यक्तित्वों पर चर्चा करना एक तरह से बेईमानी जैसा ही कहा जाएगा।  

खैर, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता कि इस चर्चा के क्या निष्कर्ष निकाले जायेगें, मेरा मकसद तो साफ़-सुथरी चर्चा का है और आगे भी रहेगा। हाँ, मैंने चर्चा की शुरुवात राहुल गांधी से की थी जो मुझे याद है, आज राहुल गांधी को पप्पू, बच्चा व नासमझ की संज्ञा देने वाले विपक्षी दलों को व विपक्षी दलों के नेताओं को यह नहीं भूल जाना चाहिए कि जिस प्रकार राहुल गांधी आपके आंकलनरुपी पैमाने पर हैं ठीक उसी प्रकार आप सब भी राजनैतिक विश्लेषकों व जनता के पैमाने पर हैं। ये और बात है कि आज के तमाम राजनैतिक दल व उनके नेता किसी न किसी छोटी-बड़ी बात पर एक दूसरे का मजाक उड़ाने तक से बाज नहीं आते हैं, कईयों बार तो ऐसे भी नज़ारे देखने को बखूवी मिलते हैं जब कई नेता खुद ही अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनते नजर आ जाते हैं, यहाँ यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि ऐसे क्षण किसी मनोरंजन के कार्यक्रम से कम नहीं होते ? वैसे, एक दूसरे को नीचा दिखाना, पटकनी देने के मौकों को तलाशना व भुनाना, आरोप-प्रत्यारोप, छींटाकशी, हा-हा, ही-ही, हू-हू भी एक प्रकार से राजनीति के हिस्से ही हैं इसलिए इन पर गंभीर होना भी उचित नहीं है। हार-जीत, पटका-पटकी, झूमा-झटकी, चित्त-पट्ट, खुशी-गम के दौर राजनीति में आयेदिन आते-जाते रहते हैं, लेकिन इन सब के बीच हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि स्वच्छ व स्वस्थ्य राजनीति न सिर्फ हमारे लिए वरन लोकतंत्र के लिए भी अत्यंत जरुरी है, लोकतंत्र की मजबूती व उज्जवल भविष्य के लिए बेहद जरुरी है, इसलिए हम राजनीति को सिर्फ राजनीतिबाजों के भरोसे नहीं छोड़ सकते, गर हम उनके भरोसे हो गए या रह गए तो फिर भगवान ही जाने लोकतंत्र, राजनीति और हम तीनों किस हाल में नजर आयें ? 

अगर आज हम राहुल गांधी पर चर्चा कर रहे हैं तो हमें आज के दौर के दूसरे राजनैतिज्ञों को भी चर्चा में शामिल करना होगा नहीं तो हमारी चर्चा एकांगी होकर रह जायेगी, औचित्य विहीन होकर रह जायेगी। यदि आज सत्तारूढ़ कांग्रेस राहुल गांधी के इर्द-गिर्द घूमते नजर आ रही है तो दीगर पार्टियां भी अपने-अपने नेता नरेन्द्र मोदी, मुलायम सिंह, मायावती, शरद पवार, नितीश कुमार, जयललिता, बगैरह बगैरह के इर्द-गिर्द ही नजर आती हैं। लेकिन, अगर, हम आज इन सभी नेताओं पर केन्द्रित होकर बात करें तो इन सभी में लगभग एक बात बिलकुल एकजैसी है वह बात यह है कि इन सभी में सत्ता की तत्परता चरम पर है, सत्ता की लालसा शिखर पर है। राहुल गांधी भी इससे अछूते नहीं हैं लेकिन राहुल गांधी में सत्ता की यह तत्परता व्यक्तिगत न होकर दलगत है अर्थात अभिप्राय यह है कि राहुल गांधी में सत्तारुपी कुर्सी पर बैठने की उतनी तत्परता नहीं है जितनी दूसरे अन्य नेताओं में नजर आती है लेकिन राहुल गांधी को यह भी गवारा नहीं है कि कोई दूसरा दल कांग्रेस को पछाड़ कर आगे निकल जाए। ओवरआल, यह लड़ाई सत्ता के लिए ही है, सत्ता के इर्द-गिर्द ही है, इसलिए कोई भी किसी भी मौके को भुनाने से बाज नहीं आयेगा, हरेक मौके को अपने पक्ष व हित में करने के लिए किसी भी तरह के साम, दाम, दंड, भेद के नुस्खे को अजमाने से नहीं चूकेगा। वैसे भी राजनीति तो राजनीति है, भला क्यों कोई किसी से पीछे रहे, भला क्यों कोई किसी से हेटा खाए, भला क्यों कोई किसी की टांग खीचने से पीछे रहे, भला क्यों कोई सत्तारुपी कुर्सी अपने हाथ से जाने दे ? 

इन सब के बीच अर्थात राजनैतिक साम, दाम, दंड, भेद की नीति व कूटनीति के बीच हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि देश, जनता, समाज, लोकतंत्र, ऐसे महत्वपूर्ण विषय हैं जिन्हें न तो भुलाया जा सकता है और न ही ये किनारे रखे जा सकते हैं। जब ये विषय हमारे सामने आते हैं तो स्वमेव ही कुशल व दूरदर्शी राजनैतिक व्यक्तित्व रूपी सवाल हमारे सामने खडा हो जाता है, और जब हम इस सवाल के जवाब की ओर बढ़ते हैं तो स्वाभाविक रूप से वर्त्तमान सक्रीय राजनैतिक नेतृत्व सामने आ जाते हैं, और फिर हम घूम-फिर कर पुन: राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी, मायावती, ममता, मुलायम, जयललिता, शरद पवार, नितीश कुमार, इत्यादि के इर्द-गिर्द पहुँच जाते हैं, और हाँ, इन सब के बीच हमें नए उभरते नेता अरविन्द केजरीवाल को भी नहीं भूल जाना चाहिए। उपरोक्त ये सभी राजनैतिक व्यक्ति वर्त्तमान राजनीति के केंद्रबिंदु हैं, यदि आज हमें कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व की संभावना को तलाशना होगा तो इनमें से ही तलाशना होगा, कम से कम आज तो हमारे समक्ष इनके अलावा कोई और विकल्प नहीं है, खुदा-न-खास्ता अगर कोई और विकल्प हमारे सामने अचानक प्रगट हो जाए तो खुदा खैर है। यदि हम आज की चर्चा करें, आज के नेतृत्वों की चर्चा करें, आज के राजनैतिक परिवेश पर चर्चा करें तो निसंदेह राहुल गांधी व नरेद्र मोदी एक दूसरे के आमने-सामने नजर आते हैं लेकिन इन दोनों में कोई ऐसा जादुई माद्दा नजर नहीं आता जो आगामी लोकसभा के नतीजों में अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत तक पहुंचा दें, सिर्फ परिवर्तन के नजरिये व पैमाने पर आज नरेन्द्र मोदी की चर्चा इक्कीस आंकी जा रही है। लेकिन जहां तक मेरा आंकलन है कुशल, दूरदर्शी, निष्पक्ष व पारदर्शी नजरिये व पैमाने पर यदि तुलना की जाए तो निर्विवाद रूप से अरविन्द केजरीवाल इन सब से बेहतर हैं जो राजनीति को राजनीति की नजर से न देखकर समाजसेवा की नजर से देखते हैं। 

आज यह कहते हुए मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि राहुल गांधी व अरविन्द केजरीवाल ऐसे दो युवा राजनैतिक नेतृत्व के रूप में उभर रहे हैं जिनमें भविष्य की उज्जवल राजनीति व मजबूत लोकतंत्र की झलक देखी जा सकती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति में कभी-कभी सारे के सारे आंकलन व पूर्वानुमान भी धरे के धरे रह जाते हैं किन्तु यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि मैं न तो कोई भविष्यवाणी जाहिर कर रहा हूँ और न ही कोई ज्योतिषीय भविष्य, मेरा उद्देश्य इनके वर्त्तमान के आधार पर भविष्य का अनुमान व आंकलन मात्र है। मेरी चर्चा का विषय कुशल व दूरदर्शी नेतृत्व है और जब मैं इस विषय पर आज के दौर के राजनैतिक नेतृत्वों पर नजर दौडाता हूँ तो मेरी नजर राहुल गांधी व अरविन्द केजरीवाल पर जाकर ही ठहरती है। अब जब यहाँ युवा नेतृत्वों की बात हो ही रही है तो देश के वर्त्तमान दो युवा मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव व उमर अबदुल्ला को हम कैसे छोड़ सकते हैं किन्तु यह सर्वविदित है कि इन दोनों युवा मुख्यमंत्रियों को सत्ता विरासत में मिली है, अब भले चाहे इन्हें सत्ता विरासत में मिली हो पर ये सत्ता का संचालन तो कर ही रहे हैं अत: इन पर टिप्पणी भी आवश्यक है, इन दो युवाओं के सन्दर्भ में मुझे यह कहने में आज ज़रा भी संकोच महसूस नहीं हो रहा है कि ये दोनों युवा मुख्यमंत्री अब तक कोई ऐसी युवा छाप व सन्देश नहीं छोड़ पाए हैं जिसकी चर्चा की जाए, आज इनसे सिर्फ इतनी ही आशा की जा सकती है कि ये भविष्य में कुछ व्यक्तिगत छाप छोड़ने में अवश्य सफल हों। लेकिन आज मैं यह निसंकोच, निर्भय, निष्पक्ष व निस्वार्थ भाव से टिप्पणी कर रहा हूँ कि यह आज का एक संभावित सच है कि वह दिन दूर नहीं जब राहुल गांधी व अरविन्द केजरीवाल को हम देश के शीर्ष पदों पर कुशल नेतृत्व करते हुए देखें। 

Thursday, October 10, 2013

चुनावों में सोशल मीडिया की भूमिका ?

चुनावों में सोशल मीडिया की भूमिका !

कुछ वर्ष पहले हमने टेलीविजन का दौर देखा था जो कहीं धीरे-धीरे तो कहीं तेजगति से शहरों से गाँवों तक पहुंचा था, ठीक उसी प्रकार आज हम शहर-शहर व गाँव-गाँव तक फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर, वेबसाईट, मेल, इत्यादि का दौर देख रहे हैं, कंप्यूटर व इंटरनेट का दौर देख रहे हैं, इनका भरपूर उपयोग देख रहे हैं, उपयोग करने वालों को देख रहे हैं। आज इंटरनेट का दौर, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, इत्यादि का दौर न्यू मीडिया के नाम से जाना व पहचाना जा रहा है, जो अपने आप सोशल मीडिया के रूप में स्थापित होते जा रहा है। आज यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि जहां प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के संवाददाता नहीं हैं वहां भी सोशल मीडिया का अस्तित्व बखूबी नजर आ रहा है। पल-पल की छोटी-बड़ी खबरें आज सोशल मीडिया पर देखी जा सकती हैं, और तो और वे खबरें भी देखी व पढी जा सकती हैं जो प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया की नज़रों से चूक जा रही हैं, या फिर जिनकी प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया जानबूझकर अनदेखी कर रहा है। आज के आधुनिक दौर में कोई भी खबर न तो दबी रह जाए और न ही दबा दी जाए, इसलिए सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया में निरंतर कॉम्पीटिशन बना रहे, चलता रहे। 

सोशल मीडिया के बर्चस्व में आने से प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया भी संशय में रहता है कि कहीं कोई खबर उनकी नजर से चूक न जाए और फिर वही खबर कुछ देर बाद सोशल मीडिया के चलते सनसनी अर्थात चर्चा-परिचर्चा का विषय बन जाए। निसंदेह आज सोशल मीडिया ताजा-तरीन खबरों के मामले में प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है, कभी कभी तो ऐसे नज़ारे भी देखने को मिल रहे हैं जब प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया को सोशल मीडिया के सहारे से आगे बढ़ना पड रहा है। वैसे, आज का दौर आधुनिकता का दौर है, नई तकनीक का दौर है, इसलिए मीडिया के किसी भी फारमेट को किसी से कम या ज्यादा आंकना न्यायसंगत नहीं होगा क्योंकि सबका अपना अपना दायरा है, अपनी अपनी पहचान है, न तो कोई छोटा है और न ही कोई बड़ा है, सब श्रेष्ठ हैं, सबकी अपनी अपनी अलग अहमियत है। अगर आज हम किसी को ज्यादा महत्त्व देंगे और किसी को कम तो यह हमारी ही मूर्खता होगी क्योंकि खबरें छोटी-बड़ी नहीं होती हैं, खबरें तो सिर्फ खबरें होती हैं, एक ओर एक खबर किसी के लिए साधारण हो सकती है तो दूसरी ओर वही खबर किसी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण।     

संभव है आधुनिकता व तकनीक के इस दौर में कल कोई और नया माध्यम मीडिया की शक्ल में सामने आ जाए जो इन सबको पीछे छोड़ कर आगे निकल जाए। लेकिन, फिर भी, हम तो यही आशा करते हैं और आशा करेंगे कि मीडिया की भूमिका आज समाज व राष्ट्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण है और आगे भी रहेगी इसलिए मीडिया के वर्त्तमान सभी स्वरूप व भविष्य में आने वाले स्वरूप सभी अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहन निष्पक्षता व पारदर्शिता से करते रहें, समाज व राष्ट्र के विकास व उज्जवल भविष्य के निर्माण में अपना सकारात्मक योगदान देते रहें। इसमें दोराय नहीं है कि आज का दौर कदम कदम पर मीडिया के लिए परीक्षा का दौर है, आज उन पर पेड न्यूज, दलाली, पक्षपातपूर्ण रवैय्या व उपेक्षापूर्ण व्यवहार जैसे गंभीर आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं। इस संवेदनशील व गंभीर दौर से जल्द से जल्द वर्त्तमान मीडिया को बाहर निकलना पडेगा, एक नई पहचान व नई दिशा की ओर रुख करना पडेगा, एक नई साख स्थापित करने की दिशा में विचार-मंथन को महत्त्व देकर नए स्वरूप को स्थापित करना पडेगा। नए स्वरूप में कहीं भी पेड न्यूज, पक्षपातपूर्ण रवैय्या व उपेक्षापूर्ण आचरण का कोई स्थान न हो, निष्पक्षता व पारदर्शिता का बोल-बाला हो, जहां इमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा चरम पर प्रमुखता से नजर आये। 

आज सोशल मीडिया का मानव जीवन व समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान है इसलिए इसमें दोराय नहीं है कि आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनावों में सोशल मीडिया की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण रहेगी, न सिर्फ चुनावी नतीजों के दौरान वरन सम्पूर्ण चुनाव के दौरान सोशल मीडिया की भूमिका प्रभावी नजर आयेगी। आज लगभग सभी राजनैतिक दल सोशल मीडिया पर बखूबी नजर आ रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब राजनैतिक दलों का राजनैतिक दंगल सोशल मीडिया पर भी जोर-शोर से नजर आये। मैं आशा करता हूँ कि सोशल मीडिया अर्थात न्यू मीडिया आगामी दिनों में अपनी भूमिका व संवेदनशीलता के महत्त्व को समझते व बूझते हुए सकारात्मक स्वरूप व भूमिका में नजर आये। आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनावों में इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाईट, मेल, इत्यादि रूपी सोशल मीडिया अर्थात न्यू मीडिया एक ऐसी मिशाल पेश करे जो अपने आप में मीडिया के इतिहास में मील का पत्थर साबित हो। सोशल मीडिया का एक ऐसा रूप आकार ले जिसकी सराहना, उपयोगिता, महत्ता व जरुरत से कोई पीछे न रहे, जिसकी प्रशंसा से कोई पीछे न रहे, जिसके सहयोग से कोई अछूता न रहे। आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनावों के दौरान सोशल मीडिया एक ऐसे स्वरूप में नजर आये जो समाज व राष्ट्र के सभी स्वरूपों की मददगार व सहायक सिद्ध हो, खासतौर पर लोकतंत्र को गौरवान्वित करे।  

Tuesday, October 8, 2013

चुनावी दंगल में मंगल की तलाश ?

चुनावी दंगल में मंगल की तलाश ! 

इसमें दोराय नहीं है कि पांच राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों से 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों की भी रूप-रेखा तय होगी, पांच राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में विधानसभा चुनावों की घोषणा होने के साथ ही राजनैतिक पार्टियों में जीत के लिए दंगल शुरू हो गया है, छोटी-बड़ी सभी राजनैतिक पार्टियां हर हाल में दंगल जीतने की जुगत में लग गई हैं। प्रथम दौर में सभी पार्टियां ऐसे मंगलों की तलाश में जुटी हुई हैं जो उन्हें ऐन-केन प्रकरण चुनाव जितवा सकें, यहाँ मंगल से मेरा अभिप्राय ऐसे प्रत्याशियों से है जो चुनाव जिता कर पार्टी का भविष्य मंगलमय कर सकें, अर्थात सभी दल बेहद सदे ढंग से फूंक-फूंक कर आगे बढ़ रहे हैं तथा ऐसे मंगलों अर्थात प्रत्याशियों की तलाश कर रहे हैं जो हर हाल में चुनाव जीत जाएँ तथा चुनावी दंगल को मंगल में बदल दें। विगत कुछेक वर्षों में भ्रष्टाचार व घोटालों को लेकर एक दो नहीं वरन लगभग सभी राजनैतिक दलों की किरकिरी हुई है, जन आन्दोलनों के समय भी लगभग सभी पार्टियों को जनता के आक्रोश का सामना करना पडा है, इस कारण भी सभी दल इस प्रयास में हैं कि प्रत्याशियों के चयन व घोषणा को लेकर पुन: उनकी किरकिरी न हो !

इसी क्रम में पार्टियों के जिला मुख्यालयों, प्रदेश मुख्यालयों व राष्ट्रीय मुख्यालयों पर मंथन का दौर चल पडा है, छोटे-बड़े सभी राजनैतिक दल अपने अपने रणनीतिकारों, सलाहकारों व प्रभावशाली नेताओं के साथ मिल-बैठ कर निरंतर विचार-मंथन कर रहे हैं, किन्तु उन्हें अप-डाउन, यस-नो, यस-यस, नो-नो रूपी कश्मकश के दौर से गुजरना पड़ रहा है। इस कश्मकश की स्पष्ट व मूल वजह विगत दिनों हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 'राईट टू रिजेक्ट' व 'सजायाफ्ता प्रतिनिधियों सम्बन्धी' सुनाये गए दो महत्वपूर्ण फैसले हैं, इन दोनों फैसलों के आने के बाद से सभी राजनैतिक दल ऐसे प्रत्याशियों की तलाश में हैं जो उनके लिए मंगल सिद्ध हो सकें अर्थात जो पार्टी की किरकिरी भी न करा सकें और किसी भी तरह से जीत भी दिला सकें। अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उपरोक्त दो महत्वपूर्ण फैसले नहीं सुनाये गए होते तो आज सभी राजनैतिक दल अपने अपने पुराने ढर्रों पर चल कर प्रत्याशियों की घोषणा कर निश्चिन्त होकर बैठ गए होते ? खैर, चुनावों का होना भी तय है, और सभी दलों का चुनावी मैदान में उतरना भी तय है, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो नामांकन के अंतिम क्षणों तक प्रत्याशियों की घोषणा भी तय है, देर-सबेर तो होते रहती है ! 

लेकिन आज यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा विगत दिनों सुनाये गए 'राईट टू रिजेक्ट' व 'सजायाफ्ता प्रतिनिधियों सम्बन्धी' फैसलों ने राजनैतिक दलों के समीकरणों व मंसूबों पर पानी फेर दिया है, मंसूबों पर पानी फेर देने से मेरा अभिप्राय यह है कि इन आदेशों के लागू होने के पूर्व राजनैतिक दलों के समक्ष बाहुबली व दबंग प्रत्याशियों को भी मैदान में उतारने व जीतने का पूरा पूरा भरोसा रहता था जो अब वे इन आदेशों के लागू होने के बाद ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। साथ ही साथ 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी आदेश तो उनके ऊपर तलवार की तरह लटक रहा है जिसके परिणामस्वरूप अब पार्टियां प्रत्याशियों के चयन में तानाशाही भी नहीं कर पा रही हैं, इसके पीछे की वजह भी साफ़ है कि अगर अब वे किसी बाहरी प्रत्याशी को जबरन थोपने का प्रयास करेंगे अर्थात जनभावनाओं की अनदेखी करने का प्रयास करेंगे तब भी उन्हें 'राईट टू रिजेक्ट' के माध्यम से जनता के आक्रोश का सामना करना पडेगा। इन दोनों आदेशों के लागू होने से समस्त राजनैतिक दलों में अंदरुनी हड़कंप मचा हुआ है, अन्दर ही अन्दर सभी दलों को चुनावी दंगल के पूर्व प्रत्याशियों के चयन रूपी दंगल का भी सामना करना पड़ रहा है, आज सभी राजनैतिक दल इस जुगत में हैं कि उन्हें प्रत्याशी रूपी ऐसे मंगल मिल जाएँ जो चुनावी दंगल जितवा सकें ! 

Sunday, October 6, 2013

जीत-हार को लेकर कांग्रेस-भाजपा दोनों संशय में ?

जीत-हार को लेकर कांग्रेस-भाजपा दोनों संशय में ! 

विधानसभा चुनावों की घोषणा हो जाने के पश्चात भी आज छत्तीसगढ़ की राजनीति के वर्त्तमान हालात ऐसे हैं कि लगभग चारों ओर मायूसी ही मायूसी के नज़ारे हैं, जनमानस में न तो सत्तारूढ़ भाजपा को लेकर उत्साह नजर आ रहा है और न ही विपक्ष में बैठी कांग्रेस को लेकर, यहाँ यह सवाल उठना लाजमी होगा कि ऐसे हालात क्यों हैं, ऐसी मायूसी क्यों है ? इन सवालों के जवाब उतने भी कठिन नहीं हैं कि सड़क पर चलता-फिरता आदमी भी न दे सके ! प्रदेश में छाई राजनैतिक मायूसी के लिए एक-दो राजनैतिक व्यक्तित्वों को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि एक-दो लोग सम्पूर्ण प्रदेश में ऐसे हालात निर्मित होने के लिए जिम्मेदार हो भी नहीं सकते। सीधे व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो वर्त्तमान में पक्ष व विपक्ष में बैठी सम्पूर्ण राजनैतिक जमात इसके लिए जिम्मेदार है, दोनों ही दलों ने पिछले पांच सालों में कभी भी अपनी कार्यकुशलता व बुद्धिमता के ऐसे उदाहरण पेश नहीं किये जिनकी वजह से आज जनमानस में उत्साह की लहर दिखाई दे ?  

यदि आज मैं प्रदेश में फ़ैली राजनैतिक मायूसी के लिए पूरी राजनैतिक जमात को जिम्मेदार मान रहा हूँ तो उसकी वजह भी है, वजह ये है की पूरे पांच साल के कार्यकाल में न तो सत्ता पक्ष जनभावनाओं को समझने व उनके अनुकूल कार्य संपन्न करने की दिशा में खरी उतरी है और न ही विपक्ष में बैठे लोग जनभावनाओं के अनुकूल विपक्ष की भूमिका अदा करने में खरे उतरे हैं। दोनों दलों का साधारण परफारमेंस एक मूल वजह है जिसके कारण आगामी विधानसभा चुनावों में हार-जीत व टकराव को लेकर जनमानस व राजनैतिक हलकों में मायूसी नजर आ रही है। उत्साह की कमी व छाई मायूसी के कारण ही सम्भवत: दोनों प्रमुख दल भाजपा व कांग्रेस अपने लड़ने वाले विधानसभा प्रत्याशियों के नामों की घोषणा करने से भी हिचकिचा रहे हैं, जीत-हार को लेकर सहमे हुए हैं ! विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, लगभग एक माह का समय ही बचा हुआ है, अगर अब भी, आगे भी, यह हिचकिचाहट जारी रही तो मायूसी चरम पर पहुँच जायेगी !

आज छत्तीसगढ़ की राजनीति नई करवट लेने की कगार पर है, नई उम्मीदों व आशाओं को बेताब है, प्रदेश का जनमानस विकास, मंहगाई, रोजगार, भ्रष्टाचार व घोटालों को लेकर संवेदनशील है लेकिन दुःख इस बात का है कि उसके सामने कोई ऐसा चेहरा अर्थात विकल्प नहीं है, जिसकी ओर वह अपना स्पष्ट रुख कर सके ? जहां तक मेरा मानना है कि इन हालात से भाजपा व कांग्रेस दोनों भी अनभिज्ञ नहीं हैं, इन विकट हालात के बीचों-बीच से दोनों दल अपनी अपनी जीत की राह तलाशने की जुगत में हैं। एक ओर पिछले दस सालों से सत्ता में बने रहने के बावजूद भी जीत को लेकर भाजपा के चेहरे पर खुशी के भाव नजर नहीं आ रहे हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस भी अपनी अंदरुनी कलह व नेतृत्व के अभाव के कारण जीत की मुद्रा में नजर नहीं आ रही है। दोनों ही खेमों में उत्साह की कमी व मायूसी साफ़ साफ़ देखी जा सकती है, आज यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगामी विधानसभा चुनावों में जीत को लेकर दोनों ही दल संशय में हैं ! 

Saturday, October 5, 2013

देवालयों व शौचालयों को लेकर मिश्रित बयानबाजी निंदनीय है ?

देवालयों व शौचालयों को लेकर मिश्रित बयानबाजी निंदनीय है ! 

देवालय और शौचालय दो ऐसे विषय हैं जिन पर मिश्रित चर्चा करना उचित नहीं है, इन विषयों की न तो एक साथ चर्चा उचित है और न ही एक मंच पर चर्चा व्यवहारिक है। दोनों विषयों की आवश्यकता व उपयोगिता भिन्न है, दोनों में जमीन-आसमान जैसा अंतर है, अत: देश के तमाम बुद्धिजीवियों को चाहिए कि इन विषयों पर एक साथ चर्चा न करें, अगर चर्चा आवश्यक ही है तो व्यक्तिगत क्यों, राष्ट्रीय स्तर पर करें, संगोष्ठियाँ आयोजित कर करें, लेकिन अलग अलग करें। मेरा तो मानना है कि अगर इन दोनों विषयों पर हमारे नेतागण इतने ज्यादा संजीदा हैं तो संसद में चर्चा करें तथा किसी सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचें, लेकिन चर्चा के विषय अलग अलग होने चाहिए। मेरा अभिप्राय मात्र इतना है कि चर्चा का उद्देश्य किसी निष्कर्ष पर पहुँचना होना चाहिए, न कि उलझना या उलझाना ? अत: इन विषयों के महत्त्व को समझें व मिश्रित चर्चा से बचें, दूर रहें, कहीं ऐसा न हो हम अपने मकसद में कामयाब न हों और चर्चा कहीं से कहीं चली जाए अर्थात तनाव की राह पकड़ ले ? 

यहाँ मैं यह नहीं कहता कि चर्चा की ही न जाए, चर्चा जरुर करें, और किसी न किसी निष्कर्ष पर भी अवश्य पहुंचें, लेकिन मेरा अनुरोध सिर्फ इतना है कि दोनों विषय अलग हैं, दोनों की महत्ता अलग है, दोनों की आवश्यता अलग है, दोनों का स्थान अलग है, कृपया दोनों को आपस में गड्ड-मड्ड न करें ! इन विषयों को सुर्खिओं में लाने वाले हमारे दोनों नेतागण श्री जयराम रमेश व श्री नरेन्द्र मोदी आप दोनों से मेरा आग्रह है कि इन विषयों को तूल न दें, गर इन विषयों पर कुछ करना ही चाहते हैं तो दोनों के लिए पृथक पृथक योजनायें बनाएं व उन्हें साकार करें। जिन स्थानों पर देवालयों की जरुरत है वहां देवालय बनाएं तथा जिन स्थानों पर शौचालयों की जरुरत है वहां शौचालय बनाएं। मैं दावे के साथ कहता हूँ जरुरतमंद लोगों की जरूरतें पूर्ण होते ही वे आप दोनों के गुणगान करने से नहीं थकेंगे, सिर्फ गुणगान ही नहीं वरन वे आप दोनों को अपने काँधे पर बिठाकर जय जयकार के नारे लगाते हुए घूमेंगे भी, अत: बयानबाजी की अपेक्षा योजनाओं पर ध्यान दें। 

आज देश में सिर्फ गाँवों में ही नहीं वरन शहर में भी एक ऐसा वर्ग है जो खुले में शौचक्रिया करने को मजबूर है, उनके पास शौच हेतु व्यवस्थाओं का अभाव है, सीधे शब्दों में कहा जाए तो ठण्ड, गर्मी, बरसात, सभी मौसमों में वे खुले मैदानों में शौचक्रिया हेतु जाने के लिए मजबूर हैं, गर उन्हें आपकी योजनायें शौचालय उपलब्ध कराएंगी तो वे निसंदेह आपके आभारी रहेंगे, आपको भगवान की तरह पूजेंगे। साथ ही साथ देश में ऐसे भी लोग, वर्ग व समुदाय हैं जो देव व देवालयों में आस्था रखते हैं लेकिन उनके पास आज देवालय नहीं हैं, यदि आपके प्रयासों से उन्हें पवित्र स्थानों पर उनकी जरूरतों के अनुसार देवालय मिल जायेंगे तो वे भी निश्चिततौर पर आपके गुणगान करेंगे तथा खुद को आपका कर्जदार महसूस करेंगे। आज देश में देवालयों की भी जरुरत है, शौचालयों की जरुरत है, किन्तु दोनों जरूरतें भिन्न-भिन्न हैं, दोनों के लिए पृथक पृथक योजनाओं की जरुरत है, पूर्णता की जरुरत है। देवालय व शौचालय दोनों ऐसे विषय हैं जिन पर मिश्रित चर्चा उचित नहीं है, जयराम रमेश व नरेन्द्र मोदी दोनों को अपने अपने कथन वापस लेना चाहिए, दोनों ही विषयों को एक साथ जोड़कर जो बयानबाजी हुई है वह निंदनीय है !

Friday, October 4, 2013

घरौंदा ...

उफ़ ! गुमशुदगी दर्ज करा दी है किसी ने.. हमारे नाम की 
सिर्फ हुआ इत्ता कि हम तपते बदन बाहर नहीं निकले ?
… 
वाह !……… यार तू बड़ा शातिर निकला 
खूब नाम कमाया है तूने जूता उछाल के ?
… 
सच ! वे शेरों से लग रहे थे …… शेरों की भीड़ में 
दुम ने उनकी, सारा मजा किरकिरा ही कर दिया ? 
… 
सब्र कर, अब तू जान न ले 
तेरे लिए ही खट रहा हूँ मैं ? 
… 
आओ 'उदय' किसी टूटे हुए सपने को जोड़ा जाए
क्यूँ न उनकी यादों का इक घरौंदा बनाया जाए ?

Wednesday, October 2, 2013

'राईट टू रिजेक्ट' से राजनैतिक फिजाओं में गर्मी ?

'राईट टू रिजेक्ट' से राजनैतिक फिजाओं में गर्मी !

विगत दिनों देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने 'राईट टू रिजेक्ट' को मतदाताओं का अधिकार मानते हुए मतदाताओं के पक्ष में फैसला सुनाया, सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सुनते ही देश में खुशी की लहर दौड़ गई। चारों ओर, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाईट, प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया पर जनता की खुशी व उत्साह साफ़ साफ़ नजर आये। हालांकि राजनैतिक गलियारों से इस फैसले के समर्थन या विरोध में कोई ठोस प्रतिक्रिया सुनने को नहीं मिली परन्तु कहीं कहीं से हल्की जुबान से इस फैसले के पक्ष में समर्थन जरुर नजर आया। इसमें दोराय नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला अपने आप में एक एतिहासिक फैसला है जिसकी जितनी भी सराहना की जाए कम ही होगी। मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि यह कदम राजनैतिक व्यवस्था सुधार में भले छोटी ही सही पर निर्णायक भूमिका अदा करेगा, इसके प्रभाव से सतत राजनैतिक फिजाओं में गर्मी रहेगी !

'राईट टू रिजेक्ट' फैसले के आने के बाद देश की राजनैतिक सोच में, राजनैतिक विचारधाराओं में व राजनैतिक व्यवस्थाओं में क्या-क्या बदलाव आयेंगे यह कह पाना अभी जल्दबाजी होगी, उक्त फैसले के आने के पश्चात राजनैतिक समीकरणों में आने वाले बदलावों के मद्देनजर गहन चर्चा व परिचर्चा की आवश्यकता है। लेकिन, व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि इस फैसले के आने से, इस फैसले के प्रभाव से, एका-एक कहीं कोई राजनैतिक क्रान्ति नहीं आने वाली है, इस फैसले के प्रभाव से सिर्फ इतना ही होगा कि राजनैतिक दलों की तानाशाहियों व तानाशाही प्रवृत्ति के प्रत्याशियों पर जरुर अंकुश लगेगा। राजनैतिक तानाशाहियों व मनमानियों पर अंकुश लगना भी एक तरह से स्वच्छ व स्वस्थ्य राजनीति की शुरुवात मानी जायेगी जिसे क्रान्ति की संज्ञा देने में किसी को कोई हर्ज नहीं होगा। 

राजनैतिक बदलाव के शुरुवाती क्रम में, सर्वप्रथम यदि किसी पर गाज गिरेगी तो वो होंगे चुने हुए ऐसे प्रत्याशी जो चुनाव जीतने के बाद बहुत ही कम अपने क्षेत्र की जनता के बीच नजर आते हैं, मेरा अभिप्राय यह है कि अक्सर जनता को यह शिकायत रही है कि उनका प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र में नजर ही नहीं आता है। वैसे, जनता की शिकायत उचित भी है कि उनके द्वारा चुना हुआ प्रत्याशी अक्सर देश की राजधानी में या फिर प्रदेश की राजधानी में ही नजर आता है, ऐसे प्रत्याशियों पर यह आदेश 'राईट टू रिजेक्ट' निसंदेह हर समय तलवार बनकर लटकता हुआ जरुर नजर आयेगा। यह सच भी है कि इस आदेश की चपेट में आने वाले सर्वप्रथम यही लोग होंगे जो चुनाव जीत कर अपने क्षेत्र व क्षेत्र की जनता को भूल जाते हैं, ऐसे प्रत्याशी जब दोबारा जनमानस के सामने चुनाव मैदान में नजर आयेंगे तो जनता सर्वप्रथम इन्हें ही 'राईट टू रिजेक्ट' के माध्यम से सबक सिखाने का प्रयास करेगी।  

इस आदेश की चपेट में आने वाला यदि दूसरा कोई होगा तो वह होगा राजनैतिक दलों का तानाशाही पूर्ण रवैय्या, अभिप्राय यह है कि अक्सर बड़े राजनैतिक दल जनभावनाओं को नजरअंदाज करते हुए मनमानी ढंग से प्रत्याशी थोपने का प्रयास करते हैं। अब जो भी राजनैतिक दल मनमानी करते हुए जनभावनाओं के विपरीत किसी प्रत्याशी को जबरन जनता पर थोपने का प्रयास करेगा, या करेंगे, तो निसंदेह थोपे हुए प्रत्याशी व दल दोनों ही जनता के 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी अधिकार के शिकार होंगे। सीधे, सरल व स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो ऐसे प्रत्याशी व दल जो जनभावनाओं के विरुद्ध नजर आयेंगे वे औंधे मुंह जमीन पर धूल चाटते हुए भी नजर आ सकते हैं, इस आदेश के प्रभाव से निश्चिततौर पर जबरदस्ती थोपे गए प्रत्याशियों व बाहरी प्रत्याशियों पर जरुर अंकुश लगेगा, एक तरह से यह स्थिति राजनैतिक दलों के लिए परीक्षा की घड़ी साबित होगी।  

तीसरे नंबर पर यदि कोई प्रभावित होगा तो वे होंगे आपराधिक व दागी प्रवृत्ति के प्रत्याशी, अभी तक दागी व आपराधिक प्रवृत्ति के प्रत्याशियों की जैसे-तैसे दाल गल जाती थी किन्तु अब इस अधिकार के मिलने से ये सीधे तौर पर 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी जन पैमाने पर नापे जायेंगे। सम्भवत: अब ऐसा नहीं होगा कि आपराधिक व दागी प्रवृत्ति के प्रत्याशी आसानी से चुनाव मैदान में आयें और चुनाव जीत कर चले जाएँ। ऐसे स्वभाव के प्रत्याशियों को वर्त्तमान में राजनैतिक दलों का भरपूर समर्थन मिला हुआ है तथा ऐसे लोग ही आज बाहुबली नेता कहलाते हैं। इन या इस तरह के बाहुबली नेताओं को अब जनता के इस 'राईट टू रिजेक्ट' अधिकार के पैमाने से हर हाल में गुजरना पडेगा, गुजरना पडेगा से सीधा-सीधा अभिप्राय यह है कि अब इनकी मनमानी जनता के सामने नहीं चलेगी, अब तो वही होगा जो जनता चाहेगी। अब, बड़े से बड़ा राजनैतिक दल ही क्यों न हो, या बड़े से बड़ा बाहुबली ही क्यों न हो, अगर वह जनता की भावनाओं के अनुरूप नहीं है तो वह भी निश्चिततौर पर 'राईट टू रिजेक्ट' के माध्यम से कसौटी पर खुद को कसता पायेगा।  

इन सब के बीच, अतिउत्साह में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 'राईट टू रिजेक्ट' के नकारात्मक परिणाम भी सामने आ सकते हैं, नकारात्मक परिणाम से मेरा अभिप्राय यह है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में 'राईट टू रिजेक्ट' का बटन एक तरह से निर्दलीय प्रत्याशी की भूमिका में नजर आयेगा। जिस प्रकार चुनाव मैदान में उतरे सभी प्रत्याशियों में वोटों का बंटवारा अर्थात मतदान नजर आता है ठीक उसी प्रकार ही 'राईट टू रिजेक्ट' कॉलम में भी मतदान नजर आयेगा। संभव है बंटवारे से 'राईट टू रिजेक्ट' के खाते में आये वोटों के परिणामस्वरूप चुनावी नतीजे कुछ इस तरह से नजर आयें जो हमें यह सोचने पर मजबूर कर दें कि हारने वाला प्रत्याशी जीत गया और जीतने वाला प्रत्याशी हार गया ? इस पैमाने से, वोटों के एक छोटे से अंतर से भी चुनावी समीकरण बदल सकते हैं, समीकरणों का यह बदलाव सकारात्मक होगा या नकारात्मक, ये तो आने वाला समय ही बताएगा ! 

लेकिन, आज हमें यह कहना व मानना पडेगा कि 'राईट टू रिजेक्ट' के आने से मतदाता ताकतवर हुआ है, ताकतवर होगा, अब वह अपनी 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी ताकत का इस्तमाल किस तरीके से करेगा यह भी समय ही बताएगा ! ओवरआल, आज मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं हो रहा है कि मतदाताओं को मिले इस अधिकार से देश की राजनीति की दशा व दिशा जरुर बदलेगी। इस अधिकार के अमल में आने से राजनीति में बदलाव आना लगभग तय है किन्तु यह बदलाव किस पैमाने पर होगा, कितना बड़ा होगा या कितना छोटा होगा, यह कह पाना आज किसी भी राजनैतिक विश्लेषक के लिए मुश्किल जैसा होगा। लेकिन जहां तक मेरा मानना है 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी अधिकार के अमल में आने से भले चाहे राजनैतिक क्रान्ति न आये पर राजनैतिक दलों की तानाशाहियों व तानाशाही प्रवृत्ति के प्रत्याशियों पर अंकुश जरुर लगेगा।

'राईट टू रिजेक्ट' वर्त्तमान चुनावी प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित हो हम यही आशा करते हैं, साथ ही साथ यह भी उम्मीद करते हैं कि जो लोग चुनावी व राजनैतिक व्यवस्था में बदलाव के लिए संघर्षरत हैं वे यहीं तक सीमित न रहें, क्योंकि बदलाव की दिशा में यह महज एक शुरुवात है, अभी तो और ढेरों बदलावों की जरुरत है, ढेरों प्रयासों की जरुरत है। एक एक कर, धीरे धीरे, गर इसी तरह हम सुधार की दिशा में बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम लोकतंत्र पर सच्चे मायने में गर्व करें व लोकतंत्र का भरपूर आनंद उठायें। राजनैतिक व्यवस्थाओं के सुधार की दिशा में, क्रम में, सजायाफ्ता प्रत्याशियों पर अंकुश व 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी फैसले, ये दोनों कदम देश की सर्वोच्च अदालत ने चले हैं हम आशा करते हैं कि आने वाले दिनों में दो-चार कदम हमारे राजनैतिक दल भी चलें जिससे स्वच्छ व स्वस्थ्य राजनीति की स्थापना हो, धीरे धीरे ही सही पर समय रहते हमारी व्यवस्थाएँ मजबूत हों, लोकतंत्र मजबूत हो !

Tuesday, October 1, 2013

लालू यादव का राजनैतिक भविष्य संकट में ?

लालू यादव का राजनैतिक भविष्य संकट में !

आज यह सवाल उठना लाजमी है कि न्यायालय से चारा घोटाले में लालू यादव को दोषी ठहराए जाने के बाद लालू यादव व उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का राजनैतिक भविष्य क्या होगा ? इस सवाल का जवाब कठिन जरुर है लेकिन इतना भी कठिन नहीं है कि जवाब दिया ही न जा सके, उक्त सन्दर्भ में मेरा तो स्पष्टतौर पर यह मानना है कि इसमें दोराय नहीं है कि लालू यादव व राष्ट्रीय जनता दल दोनों के राजनैतिक भविष्य पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं, संभव है आने वाले दिनों में ये संकटरूपी बादल तूफ़ान की भाँती मंडराने लगें तथा परिणामस्वरूप लालू यादव से जुड़े ज्यादातर लोग अपने बचाव अर्थात सुरक्षित राजनैतिक भविष्य के लिए जदयू, भाजपा, आप, या कांग्रेस की शरण में चले जाएँ, लेकिन इसकी शुरुवात कब होगी यह सवाल अपने आप में ज्यादा महत्वपूर्ण है ? 

बिहार की राजनीति में फिलहाल आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व ऐसे कोई हालात नजर नहीं आ रहे हैं कि ये लोग अर्थात लालू व उनके दल से जुड़े लोग छटपटाहट में अभी से अपने बचाव में छलांग लगाना शुरू कर दें ! लेकिन यहाँ यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव की घंटी जैसे ही बजनी शुरू होगी छटपटाहट की शुरुवात भी हो जायेगी, शुरुवात होते ही सभी न सही पर ज्यादातर लोग अपने राजनैतिक भविष्य के मद्देनजर छलांग लगा लगाकर अपने लिए नई जमीन व साया तलाश लें ! इसकी संभावना इसलिए भी है कि इनसे जुड़े लोग भी लालू यादव की नीति अर्थात अपने स्वार्थों के लिए बन्दर की तरह कभी इधर छलांग लगाना तो कभी उधर छलांग लगाना से भलीभांति परिचित हैं, सम्भवत: वे भी इसी गुरुनीति को तुरुप की चाल की तरह इस्तमाल में लें ? 

खैर, राजनैतिक समयरूपी ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय का चक्र ही जानता है लेकिन यह तय है कि लालू यादव व उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के पतन की शुरुवात लालू यादव को चारा घोटाले में न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए जाने के साथ ही शुरू हो गई है, शीघ्र ही आने वाले दिनों में इसके संकेत भी मिलने शुरू हो जायेंगे ! जहां तक मेरा मानना है कि आज चर्चा का विषय ये नहीं होना चाहिए कि लालू यादव का राजनैतिक भविष्य क्या होगा ? या राष्ट्रीय जनता दल का राजनैतिक भविष्य क्या होगा ? वरन चर्चा का विषय यह होना चाहिए कि राजनीति में भ्रष्टाचार व घोटालों में लिप्त नेताओं व दलों का भविष्य क्या होना चाहिए ? छल व प्रपंचों को अपना राजनैतिक हथियार बनाने वालों का राजनैतिक भविष्य क्या होना चाहिए ? अपने व्यक्तिगत व राजनीतक लाभ के लिए कदम कदम पर राजनैतिक पाला-बदलने वालों का राजनैतिक भविष्य क्या होना चाहिए ? जय हिन्द, जय लोकतंत्र !!